स्वेटर मुहैया कराने के मामले में सरकार को जिस तरह उलटे पैर वापस लौटना पड़ा है, वह अधिकारियों की अदूरदर्शिता का ज्वलंत उदाहरण (जागरण संपादकीय)

दैनिक जागरण संपादकीय

स्वेटर वितरण के अहम सवाल :

स्वेटर मुहैया कराने के मामले में सरकार को जिस तरह उलटे पैर वापस लौटना पड़ा है, वह अधिकारियों की अदूरदर्शिता का ज्वलंत उदाहरण

आखिरकार बेसिक शिक्षा विभाग ने हाथ घुमाकर नाक पकड़ी और स्कूलों को ही स्वेटर वितरण की जिम्मेदारी दी

जब बड़ी कंपनियां इतनी कम कीमत में स्वेटर देने को तैयार नहीं हैं तो गांव की समितियां इसे कैसे हासिल कर पाएंगी

इतना बड़ा विभाग होने के बाद भी चूक हुई और कोई भी इसके लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया गया। ऐसे में विभागीय अधिकारियों की मंशा भी कटघरे में

आखिर किन वजहों से टेंडर पर टेंडर डाले जाते रहे और उन्हें खारिज किया जाता रहा

पहले क्यों नहीं विचार किया गया कि एक रंग के स्वेटर बनाने में कंपनियों को कितना समय लगेगा

परिषदीय स्कूलों के बच्चों को स्वेटर मुहैया कराने के मामले में सरकार को जिस तरह उलटे पैर वापस लौटना पड़ा है, वह अधिकारियों की अदूरदर्शिता का ज्वलंत उदाहरण है। प्राथमिकता वाली योजनाओं में बिना सोच-विचार करके फैसले किए जाने की प्रवृत्ति से हमेशा सरकार की किरकिरी होती है और इस मामले में भी हुई। आखिरकार बेसिक शिक्षा विभाग ने हाथ घुमाकर नाक पकड़ी और स्कूलों को ही स्वेटर वितरण की जिम्मेदारी दी, लेकिन यह फैसला दिसंबर की शुरुआत में हो गया होता तो अब तक बच्चों को स्वेटर मिल भी गए होते।

अब भी गारंटी से नहीं कहा जा सकता कि बच्चों को इस महीने में स्वेटर मिल ही पाएंगे क्योंकि एक ही रंग के डेढ़ करोड़ स्वेटरों की आपूर्ति आसान काम नहीं है। सरकार ने इसकी कीमत भी महज दो सौ रुपये ही निर्धारित की है। सहज अंदाज लगाया जा सकता है कि इतनी कम कीमत में बच्चों को किस तरह के स्वेटर पहनाए जा सकेंगे। विचारणीय है कि जब बड़ी कंपनियां इतनी कम कीमत में स्वेटर देने को तैयार नहीं हैं तो गांव की समितियां इसे कैसे हासिल कर पाएंगी। जाहिर है कि बच्चों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है।

आश्चर्य है कि इतना बड़ा विभाग होने के बाद भी चूक हुई और कोई भी इसके लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया गया। ऐसे में विभागीय अधिकारियों की मंशा भी कटघरे में नजर आती है। आखिर किन वजहों से टेंडर पर टेंडर डाले जाते रहे और उन्हें खारिज किया जाता रहा। इसके पीछे कौन सी वजहें थीं। प्रदेश में कक्षा एक से लेकर आठ तक 1.54 करोड़ बच्चे हैं। पहले क्यों नहीं विचार किया गया कि एक रंग के स्वेटर बनाने में कंपनियों को कितना समय लगेगा।

यहां यह बता देना भी जरूरी है कि इससे पहले सरकार की ओर से बच्चों को निश्शुल्क जूता-मोजा वितरित किए गए हैं। यह योजना कागजों में तो ठीक नजर आती है, लेकिन स्कूलों में जाकर इसका सही हाल देखा जा सकता है। बच्चों को सही साइज के जूते नहीं उपलब्ध कराए गए और उनकी गुणवत्ता पर भी सवाल बने हुए हैं। डर है कि कहीं स्वेटर बांटने की योजना भी यही हश्र सामने न आए।

स्वेटर मुहैया कराने के मामले में सरकार को जिस तरह उलटे पैर वापस लौटना पड़ा है, वह अधिकारियों की अदूरदर्शिता का ज्वलंत उदाहरण (जागरण संपादकीय) Reviewed by प्रवीण त्रिवेदी on 9:04 AM Rating: 5

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