लेखा शाखा अधिनियम : 9. अनुशासनिक कार्यवाही
1. संवैधानिक व्यवस्थाएँ
भारत के संविधान के अनुच्छेद 310 के अन्तर्गत प्रत्येक व्यक्ति जो किसी राज्य की
सिविल सेवा का सदस्य है, उस राज्य के राज्यपाल के प्रसाद पर्यन्त अपने पद को धारण
करेगा। संविधान के अनुच्छेद 311(1) में यह व्यवस्था की गयी है कि जो व्यक्ति राज्य
की सिविल सेवा का सदस्य है अथवा अखिल भारतीय सेवा का सदस्य है, वह अपने
नियुक्ति-प्राधिकारी के अधीनस्थ किसी प्राधिकारी द्वारा पदच्युत नहीं किया जायेगा
अथवा पद से हटाया नहीं जायेगा। अनुच्छेद 311(2) में यह प्राविधान किया गया है कि
उपर्युक्त प्रकार का कोई व्यक्ति तब तक न पदच्युत किया जायेगा न पद से हटाया जायेगा
और न पंक्तिच्युत (रिडक्शन इन रैंक) किया जायेगा, जब तक ऐसी जाँच, जिसमें उसे
अपने खिलाफ दोषारोपों से सूचित कर दिया गया हो और उन दोषारोपों के सम्बन्ध में
सुनवाई का युक्तियुक्त अवसर दे दिया गया हो, न कर ली जाये और जहाँ ऐसी जाँच
के पश्चात उस पर ऐसी कोई शास्ति (पेनाल्टी) आरोपित करने की प्रस्थापना हो तो इस
प्रकार की शास्ति जाँच के दौरान प्रकट हुए साक्ष्यों के आधार पर आरोपित की जायेगी।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि उक्त प्राविधान निम्न मामलों में लागू नहीं होगा-
(क) जहाँ कोई व्यक्ति ऐसे आचरण के आधार पर
पदच्युत किया गया हो या पंक्तिच्युत किया गया
हो जिसके लिए आपराधिक आरोप पर
वह दोषसिद्ध ठहराया गया हो, या
(ख) जहाँ किसी व्यक्ति को पदच्युत करने या पद
से हटाने या पंक्तिच्युत करने की शक्ति रखने वाले प्राधिकारी का समाधान हो जाये कि
किसी कारण से, जो उस प्राधिकारी द्वारा लेखबद्ध किया जायेगा, यह युक्तियुक्त रूप से
साध्य नहीं है कि ऐसी जाँच की जाये, या
(ग) जहाँ यथास्थिति, राष्ट्रपति या राज्यपाल
का समाधान हो जाये कि राज्य की सुरक्षा के हित में यह समीचीन नहीं है कि ऐसी जाँच
की जाये।
2. उत्तर प्रदेश सरकारी सेवक (अनुशासन एवं
अपील) नियमावली, 1999
उत्तर प्रदेश सरकारी सेवक (अनुशासन एवं अपील) नियमावली, 1999 दिनांक 9 जून,
1999 से
प्रभावी है। उक्त नियमावली सिविल सेवा (वर्गीकरण, नियंत्रण एवं अपील)
नियमावली 1930 एवं उत्तर प्रदेश अधीनस्थ सेवाओं के लिए दण्ड एवं अपील
नियमावली 1932 को
विखण्डित करते हुए प्रवृत्त की गयी है और उच्च न्यायालय के अधिकारियों एवं
कर्मचारियों को छोड़कर संविधान के अनुच्छेद 309 के परन्तुक के अधीन
राज्यपाल के
नियम बनाने की शक्ति के अधीन सरकारी सेवकों पर लागू है।
उक्त नियमावली के कतिपय महत्वपूर्ण प्राविधानों का उल्लेख आगे के प्रस्तरों में किया
जा रहा है।
3. उपयुक्त और पर्याप्त कारण होने पर
सरकारी सेवकों पर अधिरोपित की जाने वाली शास्तियों के प्रकार
(क) लघु शास्तियाँ-
(1) परिनिंदा (सेंसर)।
(2) किसी विनिर्दिष्ट अवधि
के लिए वेतनवृद्धि को रोकना।
(3) किसी दक्षतारोक को
रोकना।
(4) आदेशों की उपेक्षा या
उनका उल्लंघन करने के कारण सरकार को हुई आर्थिक हानि को पूर्णत: या अँशत: वेतन से
वसूल किया जाना।
(5) समूह "घ" के पदों को
धारण करने वाले कर्मचारियों के मामले में जुर्माना परन्तु ऐसे जुर्माने की धनराशि
किसी भी स्थिति में, उस माह के वेतन के 25 प्रतिशत से, जिसमें जुर्माना
अधिरोपित किया गया हो, से अधिक नहीं होगी।
(ख) दीर्घ शास्तियाँ-
(1)
संचयी प्रभाव के साथ वेतनवृद्धि को रोकना।
(2)
किसी निम्नतर पद या श्रेणी या समयमान वेतनमान या किसी समय वेतनमान में निम्नतर
प्रक्रम पर अवनति करना।
(3)
सेवा से हटाना (रिमूवल) जो भविष्य में नियोजन से निरर्हित नहीं करता हो।
(4)
सेवा से पदच्युति (डिसमिसल) जो भविष्य में नियोजन से निरर्हित करता हो।
टिप्पणी- निम्नांकित को दण्ड की श्रेणी
में नहीं माना गया है-
(क) किसी विभागीय परीक्षा उत्तीर्ण करने में
असफल रहने पर या सेवा को
शासित करने वाले नियमों या आदेशों के अनुसार किसी अन्य
शर्त को पूर्ण करने में विफल रहने पर किसी सरकारी सेवक को वेतनवृद्धि का रोकना।
(ख) सेवा में परिवीक्षा पर नियुक्त किसी
व्यक्ति का परिवीक्षा अवधि के दौरान या उसकी समाप्ति पर नियुक्ति के निबन्धन या ऐसी
परिवीक्षा को शासित करने वाले नियमों या आदेशों के अनुसार सेवा में प्रतिवर्तन।
(ग) परिवीक्षा में नियुक्त किसी व्यक्ति की
परिवीक्षा अवधि के दौरान अथवा उसकी समाप्ति पर सेवा के निबन्धन या ऐसी परिवीक्षा को
शासित करने वाले नियमों और आदेशों के अनुसार सेवा का पर्यवस्यन।
4. निलम्बन
(क) कोई सरकारी सेवक जिसके आचरण के विरूद्ध
कोई जाँच अनुध्यात है या उसकी कार्यवाही चल रही है, नियुक्ति प्राधिकारी के विवेक
पर जाँच की समाप्ति के लम्बित रहने तक, निलम्बन के अधीन रखा जा सकेगा।
प्रतिबन्ध यह है कि
निलम्बन तब तक नहीं करना चाहिए जब तक कि सरकारी सेवक के विरूद्ध अभिकथन इतने गम्भीर
न हो कि उनके स्थापित हो जाने की दशा में सामान्यत: दीर्घ शास्ति का समुचित आधार हो
सकता हो,
अग्रेतर प्रतिबन्ध
यह है कि राज्यपाल द्वारा इस निमित्त जारी आदेश द्वारा सशक्त सम्बन्धित
विभागाध्यक्ष समूह "क" और "ख" पदों के सरकारी सेवक या सरकारी सेवकों के वर्ग को इस
नियम के अधीन निलम्बित कर सकता है।
परन्तु यह और
भी कि समूह "ग" और "घ" पदों के किसी सरकारी सेवक या सरकारी सेवकों के वर्ग के मामले
में नियुक्ति प्राधिकारी अपनी शक्ति इस नियम के अधीन अपने
ठीक निम्नतर प्राधिकारी
को प्रत्यायोजित कर सकता है।
(ख) कोई सरकारी सेवक, जिसके संबंध में या
जिसके विरूद्ध किसी आपराधिक आरोप से सम्बन्धित कोई अन्वेषण, जाँच या विचारण, जो
सरकारी सेवक के रूप में उसकी स्थिति से संबंधित है या जिससे उसके कर्तव्यों के
निर्वहन करने में संकट उत्पन्न होने की संभावना हो या जिसमें नैतिक अधमता
अन्तर्गस्त है, लम्बित हो, नियुक्ति प्राधिकारी या ऐसे प्राधिकारी द्वारा, जिसे इस
नियमावली के अधीन निलम्बित करने की शक्ति प्रत्यायोजित की गयी हो, उसके विवेक पर तब
तक निलंबित रखा जा सकेगा जब तक कि उस आरोप से संबंधित समस्त कार्यवाहियाँ समाप्त न
हो जायँ।
(ग)(1) कोई सरकारी सेवक यदि वह अड़तालिस घण्टे
से अधिक की अवधि के लिए अभिरक्षा में निरूद्ध किया गया हो चाहे निरोध आपराधिक आरोप
पर या अन्यथा किया गया हो निलंबित करने के लिए सक्षम प्राधिकारी के आदेश द्वारा
निरोध के दिनांक से यथास्थिति निलम्बन के अधीन रख गया या निरन्तर रखा गया समझा
जायेगा।
(2) उपर्युक्त सरकारी सेवक अभिरक्षा से नियुक्ति किये जाने के पश्चात अपने निरोध के बारे
में सक्षम प्राधिकारी को लिखित रूप से सूचित करेगा और समझे गये निलम्बन के विरूद्ध
अभ्यावेदन भी कर सकेगा। सक्षम प्राधिकारी मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के
साथ-साथ इस नियम में दिये गये उपबन्धों के प्रकाश में अभ्यावेदन पर विचार करने के
पश्चात अभिरक्षा से निर्मुक्त होने के दिनांक से समझे गये निलंबन को जारी रखने या
उसका प्रतिसंहरण या उपांतरण करने के लिए समुचित आदेश पारित करेगा।
(घ) कोई सरकारी सेवक उसे सिद्धदोष ठहराये जाने
के दिनांक से, यदि किसी अपराध के लिए सिद्धदोष ठहराये जाने के कारण उसे अड़तालीस
घंटे से अधिक अवधि के कारावास की सजा दी गयी है और उसे सिद्धिदोष के फलस्वरूप
तत्काल पदच्युति नहीं किया गया है या हटाया नहीं गया है, तो नियमावली 1999 के अधीन
निलम्बन के लिए सक्षम प्राधिकारी के किसी आदेश से, यथास्थिति, निलम्बन के अधीन रखा
गया या निरन्तर रखा गया समझा जायेगा।
स्पष्टीकरण:- इस उपनियम में निर्दिष्ट
अउ़तालीस घण्टे की अवधि की गणना सिद्धदोष ठहराये जाने के पश्चात और इस प्रयोजन के
लिए कारावास की आन्तरायिक कालावधियों को, यदि कोई हो, ध्यान में रखा जायेगा।
(ङ) जहाँ किसी सरकारी सेवक पर आरोपित पदच्युति
या सेवा से हटाये जाने की शास्ति को इस नियमावली या इस नियमावली द्वारा विखंडित
नियमावली के अधीन अपील में या पुनर्विलोकन में अपास्त कर दिया जाय और मामले की
अग्रेतर जाँच या कार्यवाही के लिए किसी अन्य निर्देशों के साथ प्रेषित कर दिया जाय
वहाँ-
(i) यदि वह शास्ति दिये
जाने के ठीक पूर्व निलम्बन के अधीन था, तो उसके निलम्बन के आदेश को, उपर्युक्त
किन्ही ऐसे निर्देशों के अध्यधीन रहते हुए, पदच्युति या हटाने के मूल आदेश के
दिनांक की ओर से निरन्तर प्रवृत्त हुआ समझा जायेगा।
(ii) यदि वह निलम्बन के
अधीन नहीं था, तो यदि उसे अपील या पुनरीक्षण करने वाले प्राधिकारी द्वारा इस प्रकार
निर्देशित किया जाय, पदच्युति या हटाने के मूल आदेश को और से नियुक्ति प्राधिकारी
के आदेश से निलम्बन के अधीन रख गया समझा जायेगा:
प्रतिबन्ध यह है कि इस उपनियम से किसी बात का यह अर्थ नहीं लगाया जायेगा कि वह ऐसे
मामले में जहाँ किसी सरकारी सेवक पर पदच्युति या सेवा से हटाये जाने के अधिरोपित
शास्ति को इस नियमावली के अधीन या पुनरीक्षण में, उन अभिकथनों के, जिन पर शास्ति
अधिरोपित की गयी थी, गुणों से भिन्न आधार पर अपास्त कर दिया गया हो, किन्तु
मामले की अग्रेतर जाँच या कार्यवाही के लिए या किन्ही अन्य निर्देशों के साथ
प्रेषित कर दिया गया हो, उन अभिकथनों पर उसके विरूद्ध अग्रेतर जाँच लम्बित रहते हुए
निलम्बन आदेश, इस प्रकार कि उसका भूतलक्षी प्रभाव नहीं होगा, पारित करने की
अनुशासनिक प्राधिकारी की शक्ति को प्रभावित करता है।
(च) जहाँ किसी सरकारी सेवक पर आरोपित पदच्युति
या सेवा से हटाने की शास्ति को किसी विधि न्यायालय के विनिश्चय या परिणामस्वरूप
अपास्त कर दिया जाय या शून्य घोषित कर दिया जाय और नियुक्ति प्राधिकारी मामले की
परिस्थितियों पर विचार करने पर, उसके विरूद्ध उन अभिकथनों, जिन पर पदच्युति या हटाने
की शास्ति मूलरूप में आरोपित की गई थी, अग्रेतर जाँच करने का विनिश्चय करता हो चाहे
वे अभिकथन अपने मूल
में रहें या उन्हें स्पष्ट कर दिया जाय या उनके विवरणों को और अच्छी
तरह विनिर्दिष्ट कर दिया जाय या उनके किसी छोटे भाग का लोप कर दिया जाय, वहाँ
(i) यदि वह शास्ति दिये
जाने के ठीक पूर्व निलम्बन के अधीन था, तो उसके निलम्बन के आदेश को नियुक्ति
प्राधिकारी के किसी निर्देश के अध्यधीन रहते हुए पदच्युति या हटाने के मूल आदेश के
दिनांक की ओर से निरन्तर प्रवृत्त हुआ समझा जायेगा।
(ii) यदि वह निलम्बन के
अधीन नहीं था तो उसे यदि नियुक्ति प्राधिकारी द्वारा इस प्रकार निर्देशित किया जाय,
पदच्युति या हटाने के मूल आदेश के दिनांक को और से सक्षम प्राधिकारी के किसी आदेश
द्वारा निलम्बन के अधीन रखा गया समझा जायेगा।
(छ) जहाँ कोई सरकारी सेवक (चाहे किसी
अनुशासनिक कार्यवाही के संबंध में या अन्यथा) निलम्बित कर दिया जाय या निलम्बित किया
गया समझा जाय और कोई अन्य अनुशासनिक कार्यवाही उस निलम्बन के दौरान उसके विरूद्ध
प्रारम्भ कर दी जाय, वहाँ निलम्बित करने के लिए सक्षम प्राधिकारी अभिलिखित किये जाने
वाले कारणो से यह निर्देश दे सकेगा कि सरकारी सेवक तब तक निलंबित बना रहेगा जब तक
ऐसी समस्त या कोई कार्यवाही समाप्त न कर दी जाय।
(ज) उक्त नियम के अन्तर्गत निलम्बन आदेश तब
तक प्रवृत्त बना रहेगा जब तक कि सक्षम प्राधिकारी द्वारा उसे उपान्तरित या
प्रतिसंहत न कर दिया जाय।
(झ) इस नियम के अधीन निलम्बन के अधीन या
निलम्बन के अधीन समझा गया कोई सरकारी सेवक वित्तीय नियम संग्रह, खण्ड दो, भाग 2 से
4 के मूल नियम 53 के उपबन्धों के अनुसार उपदान भत्ता पाने का हकदार होगा।
5. सरकारी सेवक को निलम्बन अवधि में भत्ते
की अनुमन्यता एवं अन्य प्राविधान
मूल नियम-53 के उपबन्धों के अनुसार निलम्बित सेवक को जीवन निर्वाह भत्ता के रूप में
निम्नलिखित धनराशि दी जायेगी :-
(1) ऐसे छुट्टी के वेतन के बराबर जो सरकारी
सेवक को प्राप्त होता यदि वह अर्धवेतन पर छुट्टी पर
होता,
(2) उस पर अनुमन्य मंहगाई भत्ता,
(3) प्रतिकर भत्ता, जो अनुमन्य हो।
निलम्बित सेवक जब यह प्रमाण-पत्र प्रस्तुत करेगा कि वह किसी अन्य सेवायोजन,
व्यापार, वृत्ति या व्यवसाय में नहीं लगा है तभी जीवन निर्वाह भत्ता का भुगतान
आरम्भ किया जायेगा।
यदि सरकारी सेवक को मकान किराया भत्ता, नगर प्रतिकर भत्ता, आदि प्राप्त हो रहा हो
तो उसके निलम्बन के दौरान इन भत्तों की पूर्ण धनराशि उसे मिलेगी, किन्तु इन प्रतिकर
भत्तों में से सिर्फ उन्हीं भत्तों को पाने का वह हकदार होगा जिसे वह व्यय कर रहा
हो।
जिस प्राधिकारी ने सरकारी सेवक का निलम्बन किया है, वह निलम्बन की तीन मास की अवधि
पूर्ण होने पर यह अभिलिखित करेगा कि निलंबित सेवक के विरूद्ध लम्बित
अनुशासनिक या आपराधिक कार्यवाही किन कारणों से समाप्त नहीं हो सकी है। यदि निलम्बित
सेवक का इसके लिए सीधे दायित्व न हो तो वह प्राधिकारी उस सेवक के जीवन निर्वाह भत्ता
की धनराशि में यथोचित वृद्धि, जो प्रथम तीन माह की अवधि में अनुमन्य जीवन निर्वाह
भत्ते के पचास प्रतिशत से अधिक न हो, करने हेतु सक्षम होगा। इसी प्रकार यदि
अनुशासनिक या आपराधिक कार्यवाही के तीन माह के उपरान्त भी लम्बित रहने के लिए
निलम्बित सेवक का दायित्व हो तो
उसे प्राप्त हो रही जीवन निर्वाह भत्ता की धनराशि
में से 50 प्रतिशत तक कमी की जा सकती है।
6. अनुशासनिक प्राधिकारी
किसी सरकारी सेवक का नियुक्ति प्राधिकारी उसका अनुशासनिक प्राधिकारी होगा जो इस
विनिर्दिष्ट शास्तियों में कोई शास्ति अधिरोपित कर सकेगा।
प्रतिबन्ध यह है कि किसी व्यक्ति को किसी ऐसे प्राधिकारी द्वारा जो उसके अधीनस्थ हो
जिसके द्वारा उसकी वास्तविक रूप में नियुक्ति की गयी थी, पदच्युत या हटाया नहीं
जायेगा :
अग्रेतर प्रतिबन्ध यह है कि उत्तर प्रदेश श्रेणी-दो सेवा (लघु शास्तियों का आरोपण)
नियमावली, 1973 के अधीन अधिसूचित विभागाध्यक्ष इस नियमावली के उपबन्धों के अधीन रहते
हुए, इस नियमावली के नियम 3 में उल्लिखित लघु शास्तियाँ अधिरोपित करने के लिए सशक्त
होगा :
प्रतिबन्ध यह भी है कि इस नियमावली के अधीन राज्य सरकार अधिसूचित आदेश द्वारा समूह
"ग" और "घ" के पदों के किसी सरकारी सेवक के मामले में पदच्युति या सेवा से हटाये
जाने के सिवाय किसी भी शास्ति को अधिरोपित करने की शक्ति को नियुक्ति प्राधिकारी के
अधीनस्थ किसी प्राधिकारी को ऐसी शर्तों के अध्यधीन रहते हुए जैसे उसमें विहित की
जायं, प्रत्यायोजित कर सकती है।
7. दीर्घ शास्तियाँ अधिरोपित करने के लिए
प्रक्रिया
किसी सरकारी सेवक पर कोई दीर्घ शास्ति अधिरोपित करने के पूर्व
निम्नलिखित रीति से जाँच की जायेगी :-
(क) अनुशासनिक प्राधिकारी स्वयं आरोपों की
जाँच कर सकता है या अपने अधीनस्थ किसी प्राधिकारी को आरोपों की जाँच करने के लिए
जाँच अधिकारी के रूप में नियुक्त कर सकता है।
(ख) अवचार के ऐसे तथ्यों की जिन पर कार्यवाही
का किया जाना प्रस्तावित हो, निश्चित आरोप या आरोपों के रूप में रूपान्तरित किया
जायेगा जिसे आरोप-पत्र कहा जायेगा। आरोप-पत्र अनुशासनिक प्राधिकारी द्वारा अनुमोदित
और हस्ताक्षरित किया जायेगा :
प्रतिबन्ध यह है कि जहाँ नियुक्ति प्राधिकारी राज्यपाल हो वहाँ आरोप-पत्र संबंधित
विभाग के यथास्थिति, प्रमुख सचिव या सचिव द्वारा अनुमोदित किया जा सकेगा।
(ग) विरचित आरोप इतने संक्षिप्त और स्पष्ट
होंगे जिससे आरोपित सरकारी सेवक के विरूद्ध तथ्यों और परिस्थितियों के पर्याप्त
उपदर्शन हो सके। आरोप-पत्र में प्रस्तावित दस्तावेजी साक्ष्यों और उसे सिद्ध करने
के लिए प्रस्तावित गवाहों के नाम मौखिक साक्ष्यों के साथ, यदि कोई हो, आरोप पत्र
में उल्लिखित किये जायेंगे।
(घ) आरोपित सरकारी सेवक से यह अपेक्षा
की जायेगी कि वह किसी विनिर्दिष्ट दिनांक को जो आरोप-पत्र के जारी होने के
दिनांक से 15 दिन से कम नहीं होगा, व्यक्तिगत रूप से अपनी प्रतिरक्षा में एक लिखित
कथन प्रस्तुत करे
और यह कथन करें कि आरोप-पत्र में उल्लिखित किसी साक्षी का प्रतिपरीक्षा करना चाहता
है और क्या वह अपनी प्रतिरक्षा में साक्ष्य देना या प्रस्तुत करना चाहता है। उसको
यह भी सूचित किया जायेगा कि विनिर्दिष्ट दिनांक
को उसके उपस्थित न होने या लिखित
कथन दाखिल न करने की दशा में यह उपधारणा की जायेगी कि उसके पास प्रस्तुत करने के
लिए कुछ नहीं है और जाँच अधिकारी एकपक्षीय जाँच करने की कार्यवाही करेगा।
(ङ) आरोप-पत्र, उसमें उल्लिखित दस्तावेजी
साक्ष्यों की प्रति और साक्षियों की सूची और उनके कथन, यदि कोई हो, के साथ आरोपित
सरकारी सेवक को व्यक्तिगत रूप से या रजिस्ट्रीकृत डाक द्वारा कार्यालय अभिलेखों में
उल्लिखित पते पर तामील की जायेगी, उपर्युक्त रीति से आरोप-पत्र तामील न कराये जा
सकने की दशा में आरोप-पत्र को व्यापक परिचालन वाले किसी दैनिक समाचार पत्र
में प्रकाशन द्वारा तामील कराया जायेगा
:
प्रतिबन्ध यह है कि जहाँ दस्तावेजी साक्ष्य विशाल हो वहाँ इसकी प्रति आरोप-पत्र के
साथ प्रस्तुत करने के बजाय, आरोपित सरकारी सेवक की उसे जाँच अधिकारी के समक्ष
निरीक्षण करने की अनुज्ञा दी जायेगी।
(च) जहाँ आरोपित सेवक उपस्थित होता है और
आरोपों को स्वीकार करता है, वहाँ ऐसे अभिस्वीकृति के आधार पर जहाँ अधिकारी अपनी
रिपोर्ट अनुशासकीय प्राधिकारी को प्रस्तुत करेगा।
(छ) जहाँ आरोपित सरकारी सेवक आरोपों को
इन्कार करता है, वहाँ जाँच अधिकारी आरोप-पत्र में प्रस्तावित साक्षी को बुलाने
कार्यवाही करेगा और आरोपित सरकारी सेवक की उपस्थिति में जिसे ऐसे साक्षियों की प्रति
परीक्षा का अवसर दिया जायेगा, उनके मौखिक साक्ष्य को अभिलिखित करेगा। उपर्युक्त
साक्ष्यों को अभिलिखित करने के पश्चात जाँच अधिकारी उस मौखिक साक्ष्य को मांगेगा और
उसे अभिलिखित करेगा जिसे आरोपित सरकारी सेवक ने अपनी प्रतिरक्षा में अपने लिखित कथन
में प्रस्तुत करना चाहा था :
प्रतिबन्ध यह है कि जाँच अधिकारी ऐसे कारणों से जो लिखित रूप में अभिलिखित किये
जायेंगे, किसी साक्षी को बुलाने से इन्कार कर सकेगा।
(ज) जाँच अधिकारी उत्तर प्रदेश विभागीय जाँच
(साक्ष्यों को हाजिर होने और दस्तावेज पेश करने के लिए बाध्य करना) अधिनियम, 1976
के उपबन्धों के अनुसार अपने समक्ष किसी साक्षी को साक्ष्य देने के लिए बुला सकेगा
या किसी व्यक्ति के दस्तावेज प्रस्तुत करने की अपेक्षा कर सकेगा।
(झ) जाँच अधिकारी सत्य का पता लगाने या आरोपों
से सुसंगत तथ्यों का उचित प्रमाण प्राप्त करने की दृष्टि से किसी भी समय, किसी
साक्षी से या आरोपित व्यक्ति से कोई भी प्रश्न, जो वह चाहे, पूछ सकता है।
(=)
जहाँ आरोपित सरकारी सेवक जाँच में किसी नियत दिनांक पर या कार्यवाही के किसी भी
स्तर पर उसे सूचना तामील किये जाने या दिनांक जानकारी रखने के बावजूद उपस्थित नहीं
होता है तो जाँच अधिकारी एकपक्षीय जाँच की कार्यवाही करेगा। ऐसे मामले में जाँच
अधिकारी, आरोपित सरकारी सेवक की अनुपस्थिति में, आरोप-पत्र में उल्लिखित साक्षियों
के कथन को अभिलिखित करेगा।
(ट) अनुशासनिक प्राधिकारी यदि वह ऐसा करना
आवश्यक समझता हो, आदेश द्वारा उसकी ओर से आरोप के समर्थन में मामले को प्रस्तुत करने
के लिए किसी सरकारी सेवक या विधि व्यवसायी को जिसे प्रस्तुतकर्ता अधिकारी कहा जायेगा
नियुक्त कर सकता है।
(ठ) सरकारी सेवक अपनी ओर से मामले को
प्रस्तुत करने के लिए किसी अन्य सरकारी सेवक की सहायता ले सकता है किन्तु इस
प्रयोजन के लिए विधिक व्यवसायी की सेवा तब तक नहीं ले सकता है जब तक कि अनुशासनिक
प्राधिकारी द्वारा नियुक्त प्रस्तुतकर्ता अधिकारी कोई विधि व्यवसायी न हो या
अनुशासनिक प्राधिकारी, मामले की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए ऐसी अनुज्ञा न
दे दिया हो:
प्रतिबन्ध यह है कि यह नियम निम्नलिखित मामलों में लागू नहीं होगा -
(1) जहाँ किसी व्यक्ति पर
कोई दीर्घ शास्ति ऐसे आचरण के आधार पर अधिरोपित की गई हो जो किसी आपराधिक आरोप पर
उसे सिद्धदोष ठहराए, या
(2) जहाँ अनुशासनिक
प्राधिकारी का ऐसे कारणों से जो उसके द्वारा लिखित रूप में अभिलिखित किये जायेंगे,
यह समाधान हो जाता है कि इस नियमावली में से उपबंधित रीति से जाँच करना युक्तियुक्त
रूप से व्यावहारिक नहीं है, या
(3) जहाँ राज्यपाल
का यह समाधान हो जाय कि राज्य की सुरक्षा के हित में इस नियमावली में उपबंधित रीति
से जाँच किया जाना समीचीन नहीं है।
8. जाँच रिपोर्ट का प्रस्तुत किया जाना
जाँच पूरी हो जाने पर जाँच अधिकारी जाँच के समस्त अभिलेखों के साथ अपनी जाँच
रिपोर्ट अनुशासनिक प्राधिकारों को प्रस्तुत करेगा। जाँच रिपोर्ट में संक्षिप्त तथ्यों
का पर्याप्त अभिलेख, साक्ष्य और प्रत्येक आरोप पर निष्कर्ष का विवरण और उसके कारण
अन्तर्विष्ट होंगे। जाँच अधिकारी शास्ति के बारे में कोई संस्तुति नहीं करेगा।
9. जाँच रिपोर्ट पर कार्यवाही
(क) अनुशासनिक प्राधिकारी सरकारी सेवक को
सूचना देते हुए ऐसे कारणों से जो लिखित रूप में अभिलिखित किये जायेंगे, मामला पुन:
जाँच के लिए उसी या किसी अन्य जाँच अधिकारी को प्रेषित कर सकेगा।
(ख) अनुशासनिक प्राधिकारी, यदि वह किसी आरोप
के निष्कर्ष पर जाँच अधिकारी से असहमत हो तो उस अभिलिखित किये जाने वाले कारणों से
अपने निष्कर्ष को अभिलिखित करेगा।
(ग) आरोप सिद्ध न होने की दशा में अनुशासनिक
प्राधिकारी द्वारा आरोपित सरकारी सेवक को आरोपों से विमुक्त कर दिया जायेगा और
तदनुसार उसे सूचित कर दिया जायेगा।
(घ) यदि समस्त या किन्ही आरोपों के निष्कर्षों
को ध्यान में रखते हुए अनुशासनिक प्राधिकारी की यह राय हो कि विनिर्दिष्ट शास्तियों
में से कोई शास्ति आरोपित सरकारी सेवक पर अधिरोपित होनी चाहिए तो वह जाँच रिपोर्ट
और उसके अभिलिखित निष्कर्षों की एक प्रति आरोपित सरकारी सेवक को देगा और उससे उसका
अभ्यावेदन, यदि वह ऐसा चाहता हो, एक युक्तियुक्त विनिर्दिष्ट समय के भीतर
प्रस्तुत करने की अपेक्षा करेगा। अनुशासनिक प्राधिकारी जाँच और आरोपित सरकारी सेवक
के अभ्यावेदन से संबंधित समस्त सुसंगत अभिलेखों को ध्यान में रखते हुए, यदि कोई हो,
और इस नियमावली 1999 के नियम-16 के उपबन्धों (लोक सेवा आयोग से परामर्श विषयक
उपबन्ध) के अध्यधीन रहते हुए इस एक या अधिक शास्तियाँ अधिरोपित करते हुए एक
युक्तिसंगत आदेश पारित करेगा और उसे आरोपित सरकारी सेवक को संसूचित करेगा।
10. लघु शास्तियाँ अधिरोपित करने के लिए
प्रक्रिया
(क) जहाँ अनुशासनिक प्राधिकारी का समाधान हो
जाय कि ऐसी प्रक्रिया को अंगीकार करने के लिए समुचित और पर्याप्त कारण है वहाँ वह
पूर्वोक्त उपनियम 8-ख के उपबन्धों के अध्यधीन रहते हुए नियम-3 में उल्लिखित एक या
अधिक लघु शास्तियाँ अधिरोपित कर सकेगा।
(ख) सरकारी सेवक को उसके विरूद्ध अभ्यारोपणों
का सार सूचित किया जायेगा और उससे एक युक्तियुक्त समय के भीतर अपना स्पष्टीकरण
प्रस्तुत करने की उपेक्षा की जायेगी। अनुशासनिक प्राधिकारी उक्त स्पष्टीकरण, यदि
कोई हो और सुसंगत अभिलेखों पर विचार करने के पश्चात ऐसे आदेश जैसा वह उचित समझता
है, पारित करेगा और जहाँ कोई शास्ति अधिरोपित की जाय वहाँ उसके कारण दिये जायेंगे।
आदेश संबंधित सरकारी सेवक को संसूचित किया जायेगा।
11. अपील
(क) उत्तर प्रदेश सरकारी सेवक (अनुशासक एवं
अपील) नियमावली, 1999 के अधीन राज्यपाल द्वारा पारित आदेश के सिवाय सरकारी सेवक
अनुशासनिक प्राधिकारी द्वारा पारित किसी आदेश की अपील अगले उच्चतर प्राधिकारी को
करने का हकदार होगा।
(ख) अपील, अपील प्राधिकारी को सम्बोधित और
प्रस्तुत की जायेगी। यदि कोई सरकारी सेवक अपील करेगा तो वह उसे अपने नाम से
प्रस्तुत करेगा। अपील में ऐसे समस्त तात्विक कथन और तर्क होंगे जिन पर अपीलार्थी
भरोसा करता हो।
(ग) अपील में किसी असंयमित भाषा का प्रयोग नहीं
किया जायेगा। कोई अपील जिससे ऐसी भाषा का प्रयोग किया जाय, सरसरी तौर पर खारिज की
जा सकेगी।
(घ) अपील आक्षेपित आदेश की संसूचना के दिनांक
से 90 दिन के भीतर प्रस्तुत की जायेगी। उक्त अवधि के पश्चात की गई कोई अपील सरसरी
तौर पर खारिज कर दी जायेगी।
12. अपील पर विचार
अपील प्राधिकारी निम्नलिखित पर विचार करने के पश्चात अपील में निम्न प्रस्तर 13
अर्थात नियमावली 1999 के नियम-13 के खण्ड (क) से (घ) में यथोउल्लिखित ऐसा आदेश
पारित करेगा जैसा वह उचित समझे-
(क) क्या ऐसे तथ्य जिन पर आदेश आधारित था,
स्थापित किये जा चुके हैं
(ख) क्या स्थापित किये गये तथ्य कार्यवाही
करने के लिए पर्याप्त आधार प्रदान करते है, और
(ग) क्या शास्ति अत्यधिक, पर्याप्त या
अपर्याप्त है।
13. पुनरीक्षण
उत्तर प्रदेश सरकारी सेवक (अनुशासन एवं अपील) नियमावली, 1999 में किसी बात के होते
हुए भी, सरकार स्वप्रेरणा से या संबंधित सरकारी सेवक के अभ्यावेदन पर किसी ऐसे मामले
के अभिलेख को मंगा सकेगी जिसका विनिश्चय उसके अधीनस्थ किसी प्राधिकारी द्वारा इस
नियमावली द्वारा प्रदत्त शक्ति का प्रयोग करके किया गया हो और
(क) ऐसे प्राधिकारी द्वारा पारित आदेश की
पुष्टि कर सकेगी, उसका उपान्तर कर सकेगी या उसे उलट सकेगी, या
(ख) निर्देश दे सकेगी कि मामले में अग्रेतर
जाँच की जाय, या
(ग) आदेश द्वारा अधिरोपित दण्ड को कम कर सकेगी
या उसमें वृद्धि कर सकेगी, या
(घ) मामले में ऐसा अन्य आदेश दे सकेगी जैसा
वह उचित समझे।
14. पुनर्विलोकन
राज्यपाल यदि उसे संज्ञान में यह बात लाई गई हो कि आक्षेप आदेश पारित करते समय कोई
ऐसी नई सामग्री या साक्ष्य को पेश न किया जा सका था या उपलब्ध नहीं था या विधि की
कोई ऐसी तात्विक त्रुटि हो गयी थी जिसका प्रभाव मामले की प्रकृति को परिवर्तित करता
हो, तो वह किसी भी समय स्वप्रेरणा से या सम्बन्धित सरकारी सेवक के अध्यावेदन पर
उत्तर प्रदेश सरकारी सेवक (अनुशासन एवं अपील) नियमावली, 1999 के अधीन अपने द्वारा
पारित किसी आदेश का पुनर्विलोकन कर सकेंगे।
15. शास्ति अधिरोपित करने या वृद्धि करने
के पूर्व अवसर
अपील, पुनरीक्षण या पुनर्विलोकन के अधीन शास्ति अधिरोपित करने या उनमें वृद्धि करने
का कोई आदेश तब तक नहीं किया जायेगा जब तक कि संबंधित सरकारी सेवक को प्रस्तावित
यथास्थिति, अधिरोपित करने या वृद्धि करने के विरूद्ध कारण बताने का युक्तियुक्त अवसर
न दिया गया हो।
16. आयोग से परामर्श
इस नियमावली के अधीन राज्यपाल द्वारा किसी आदेश के पारित किये जाने के पूर्व
समय-समय पर यथासंशोधित उत्तर प्रदेश लोक सेवा (कृत्यों का परिसीमन) विनियम,
1954 के अधीन यथापेक्षित आयोग से भी परामर्श किया जायेगा।
17. अनुशासनिक कार्यवाही के अन्य
महत्वपूर्ण बिन्दु
1- प्रारम्भिक जाँच -
सरकारी सेवक के कार्य अथवा आचरण के बारे में प्राप्त शिकायतों, सूचना अथवा किसी भी
संदिग्ध तथ्यों को एकत्र एवं अभिनिश्चित करने के उद्देश्य से प्रारम्भिक जाँच की
जाती है ताकि सक्षम प्राधिकारी सम्बन्धित कर्मचारी के विरूद्ध औपचारिक कानूनी
कार्यवाही या विभागीय जाँच या अनुशासनिक कार्यवाही प्रारम्भ करने अथवा न करने के
सम्बन्ध में सम्यक निर्णय ले सके। प्रारम्भिक जाँच करने या कराने के बारे में कोई
विधिक अनिवार्यता नहीं है। ऐसी जाँच करने की शक्ति सक्षम प्राधिकारी की प्रशासनिक
शक्ति में अन्तर्निहित होता है। यदि प्रारम्भिक जाँच के निष्कर्षों से विभागीय जाँच
या अनुशासनिक कार्यवाही प्रारम्भ किये जाने का निर्णय लिया जाय तो यथासम्भव
प्रारम्भिक जाँच कराने वाले अधिकारी को अनुशासनिक कार्यवाही या विभागीय जाँच हेतु
जाँच अधिकारी नहीं नियुक्त किया जाना चाहिए।
2- दण्डादेश -
दण्डादेश में निम्नलिखित बिन्दुओं को समावेशित किया जाना चाहिए :-
(1) अभियोजन पक्ष का कथन, "जिसमें आरोपित
सेवक पर लगाये गये आरोपों का सार दिया गया हो।
(2) आरोपित सेवक के कथन, जिसमें लिखित उत्तर
में अभिलिखित बचाव कथन का सार उल्लिखित हो।
(3) जाँच में प्रस्तुत साक्ष्यों के
संक्षिप्त विवरण।
(4) जाँच अधिकारी का प्रत्येक आरोप पर
निष्कर्ष।
(5) जाँच रिपोर्ट के विरूद्ध आरोपित सेवक
द्वारा दिये गये
अभ्यावचन का सार।
(6) जाँच अधिकारी के निष्कर्ष से सहमति या
असहमति का कारण।
(7) दण्डन प्राधिकारी के प्रत्येक आरोप पर
आरोपित सेवक को दोष सिद्ध करने का निष्कर्ष।
(8) विशिष्ट दण्ड एवं उसके निर्धारण का कारण।
(9) लोक सेवा आयोग का परामर्श यदि कोई हो तथा
उससे असहमति की दशा में कारण।
(10) दण्ड जो अधिरोपित किया जाय।
3- दण्डादेश का विनिश्चय -
दण्डादेश का विनिश्चय करते समय दण्डन अधिकारी द्वारा विचारणीय बिन्दु -
(1) सरकारी सेवक द्वारा कृत दुराचरण की
प्रकृति।
(2) दुराचरण करने या कराने में सरकारी सेवक
की भूमिका।
(3) दुराचरण का कारण व प्रयोजन।
(4) दुराचरण एवं अभिप्रेरण।
(5) उस सेवक की उम्र।
(6) उस सेवक की परिपक्वता या प्रौढ़ता।
(7) उसके पूर्ववृत्त।
4- जाँच अधिकारी की नियुक्ति -
जाँच अधिकारी नियुक्त
करते समय अनुशासनिक प्राधिकारी द्वारा ध्यान में रखने योग्य
बिन्दु :
(1) वह अधिकारी आरोपित सेवक से पूर्वाग्रह न
रखता हो या उस मामले में हितबद्ध न हो।
(2) वह अधिकारी उस मामले में साक्षी या
परिवादी न हो।
(3) अधिकारी की सामान्य ख्याति निष्पक्ष होने
की हो।
(4) जाँच अधिकारी की नियुक्ति पदनाम से की
जाये।
(5) यथासम्भव आरोपित सेवक से दो श्रेणी ऊपर
के अधिकारी को जाँच अधिकारी नियुक्त किया जाना चाहिए किन्तु जाँच अधिकारी का स्तर
दण्डन प्राधिकारी से उच्च स्तर का नहीं होना चाहिए।
(6) एक ही घटना से सम्बन्धित कई अधिकारियों
तथा कर्मचारियों के विरूद्ध एक ही जाँच अधिकारी से जाँच करायी जानी चाहिए।
(7) प्रारम्भिक जाँच करने वाले अधिकारी को
यथासम्भव अनुशासनिक जाँच
हेतु जाँच अधिकारी नहीं नियुक्त किया जाना चाहिए।
5- आरोप-पत्र में संशोधन -
जाँच के किसी भी प्रकरण पर यदि आवश्यक समझा जाय, आरोप-पत्र में
निम्नांकित प्रक्रिया
अपनाते हुए संशोधन किया जा सकता है -
(1) आरोप-पत्र में प्रस्तावित संशोधन की सूचना
आरोपित सेवक को दी जाएगी।
(2) आरोपित सेवक आपत्ति करे तो सकारण आदेश
द्वारा आपत्ति का निस्तारण किया जाएगा।
(3) अनुशासनिक प्राधिकारी, या उनके अनुमोदन
से जाँच अधिकारी, आरोप-पत्र में संशोधन करेंगे।
(4) संशोधित आरोप-पत्र की प्रतिलिपि आरोपित
सेवक को दी जाएगी।
(5) आरोपित सेवक को अतिरिक्त लिखित कथन देने
का अवसर दिया जायेगा।
(6) अभियोजन-साक्षी से प्रतिपरीक्षा करने तथा
बचाव में अतिरिक्त साक्ष्य प्रस्तुत करने का अवसर आरोपित सेवक को दिया जाएगा।
6- समरूपी आरोप पर दूसरी जाँच
-
समरूपी आरोप पर दूसरी जाँच निम्नांकित परिस्थितियों में की जा सकती है -
(1) सरकारी सेवक के विरूद्ध की जा रही
अनुशासनिक जाँच को बन्द या समाप्त करके, उन्हीं आरोपों पर दूसरी जाँच की जा
सकती है।
(2) अनुशासनिक प्राधिकारी जाँच अधिकारी की
रिपोर्ट को निरस्त करके, उन्ही आरोपों पर दूसरी जाँच कर या करा सकते हैं।
(3) जब अनुशासनिक जाँच करके सरकारी सेवक को
दोषमुक्त कर दिया गया हो तो उसी आरोप के लिए दूसरी जाँच नहीं करायी जा सकती है।
(4) जब अनुशासनिक जाँच करके सरकारी सेवक को
दण्डित किया जा चुका हो तो उसी आरोप के लिए दूसरी जाँच नहीं करायी जा सकती है।
(5) जब सरकारी सेवक के विरूद्ध कुछ आरोपों के
बारे में विभागीय जाँच करके उसे दोषमुक्त किया जा चुका हो तो उन्ही आरोपों के साथ
कुछ अन्य आरोप सम्मिलित करके दूसरी जाँच आरम्भ करना अधिकारिता से परे तथा अनुचित
है।
(6) जब अनुशासनिक जाँच के उपरान्त पारित किया
गया दण्डादेश न्यायालय द्वारा प्रक्रियात्मक त्रुटि या तकनीकी आधार पर, निरस्त कर
दिया गया हो तो उसी आरोप के लिए दूसरी जाँच करायी जा सकती है।
7- आपराधिक अभियोजन के साथ अनुशासनिक जाँच -
शासनादेश संख्या 13/27/91-का-1-2000, दिनांक 6 सितम्बर, 2000 के अनुसार इस बिन्दु
पर निम्नवत निर्णय लिया गया है :-
(1) विभागीय कार्यवाही एवं आपराधिक मामले की
कार्यवाही साथ-साथ की जा सकती है। यह कार्यवाहियाँ पृथक-पृथक एवं साथ-साथ करने में
कोई बाधा नहीं है।
(2) यदि विभागीय एवं आपराधिक मामले की
कार्यवाहियाँ समान एवं समरूपी तथ्यों एवं आरोप पर आधारित हो तथा आपराधिक आरोप
गम्भीर प्रकृति का हो, जिसमें तथ्यों एवं कानून का क्लिष्ट प्रश्न अन्तर्ग्रस्त हो
तो आपराधिक मामले के निर्णय तक विभागीय कार्यवाही को स्थगित रखने के बिन्दु पर
सम्यक विचारोपरान्त विनिश्चय करके यथोचित आदेश किया जायेगा।
(3) आपराधिक आरोप गम्भीर प्रकृति का है या नहीं?
तथ्य एवं कानून का क्लिष्ट प्रश्न अन्तर्ग्रस्त है अथवा नहीं? का विनिश्चय अपराध की
प्रकृति, कर्मचारी के विरूद्ध संस्थित मामले की प्रकृति, अन्वेषण के दौरान उसके
विरूद्ध एकत्रित साक्ष्य सामग्री एवं अन्य सामग्री, जैसा कि आरोप-पत्र में अभिलिखित
है, पर विचार करके किया जायेगा।
(4) विभागीय कार्यवाही के स्थगन पर विचार के
लिए उपर्युक्त क्रम संख्या-2 एवं 3 पर वर्णित बातों पर समग्रता से विचार किया जाएगा
साथ ही विभागीय कार्यवाही को अनावश्यक विलम्बित न किए जाने के तथ्य पर भी
सम्यक ध्यान दिया जाएगा।
(5) यदि आपराधिक मामले में प्रगति नहीं होती
अथवा इसके निस्तारण में अनावश्यक विलम्ब होता है, तब विभागीय कार्यवाही को, भले ही
उसे आपराधिक मामला लम्बित होने के कारण स्थगित किया गया हो, पुन: आरम्भ करके
कार्यवाही की जा सकती है।
8- अनुशासनिक कार्यवाही के क्रमबद्ध सोपान
-
(1) जाँच कराने का विनिश्चय।
(2) जाँच अधिकारी की नियुक्ति।
(3) आरोप-पत्र तैयार करना।
(4) आरोपित सेवक पर आरोप-पत्र का तामीला।
(5) आरोपित सेवक को लिखित कथन प्रस्तुत करने
का समय देना।
(6) आरोपित सेवक को व्यक्तिगत सुनवाई का अवसर
देना।
(7) प्रस्तुतकर्ता अधिकारी नियुक्त करना।
(8) आरोपित सेवक को बचाव सहायक की सहायता लेने
की अनुमति देना।
(9) अभियोजन पक्ष अर्थात, विभाग का साक्ष्य
लेना।
(10) बचाव पक्ष अर्थात आरोपित सेवक का
साक्ष्य लेना।
(11) आरोपित सेवक से, उसके विरूद्ध साक्ष्य
में आयी परिस्थितियों के सम्बन्ध में प्रश्न पूछ कर स्पष्टीकरण लेना, यदि आरोपित
सेवक भारतीय प्रशासनिक सेवा, भारतीय पुलिस सेवा, भारतीय वन सेवा, भारतीय चिकित्सा
सेवा, भारतीय अभियन्ता सेवा, संघीय सेवा या रेल सेवा का सदस्य हो।
(12) बहस सुनना।
(13) साक्ष्य का अधिमूल्यन करना।
(14) जाँच रिपोर्ट तैयार करना।
(15) अनुशासनिक प्राधिकारी या अनन्तिम
विनिश्चय।
(16) आरोपित सेवक को जाँच रिपोर्ट की
प्रतिलिपि देकर अभ्यावेदन प्रस्तुत करने का अवसर देना।
(17) अनुशासनिक प्राधिकारी का अन्तिम
विनिश्चय।
(18) लोक सेवा आयोग से परामर्श।
(19) दण्डादेश।
9- समय-सारिणी
शासनादेश संख्या 7/8/1977-का-1-1977, दिनांक 30 जुलाई, 1977 द्वारा अनुशासनिक
कार्यवाही के मामलों का शीघ्रता से निस्तारण करने हेतु निम्नवत समय-सारिणी
निर्धारित की गयी है-
(1) औपचारिक कार्यवाही किये जाने के निर्णय
की तिथि से 15 दिन के अन्दर अपचारी कर्मचारी को आरोप-पत्र दिया जाय।
(2) अपचारी कर्मचारी से अपना लिखित
स्पष्टीकरण 15 दिन से एक महीने के अन्दर प्रस्तुत करने को कहा जायेगा। किसी भी हालत
में स्पष्टीकरण प्रस्तुत किए जाने के लिए एक महीने से अधिक का समय नहीं दिया जायेगा।
(3) अपचारी कर्मचारी का स्पष्टीकरण प्राप्त
होने के एक महीने के अन्दर जाँच पूरी कर ली जाय जिसमें गवाहों की परीक्षा एवं
प्रतिपरीक्षा भी सम्मिलित है।
(4) जाँच अधिकारी की रिपोर्ट, जहाँ वह स्वयं
दण्डन अधिकारी नहीं है, शीघ्रताशीघ्र प्रस्तुत की जाय। साधारणतया यह रिपोर्ट जाँच
समाप्त होने के 15 दिन के अन्दर प्रस्तुत कर दी जाय।
(5) जहाँ दण्डन अधिकारी जाँच अधिकारी से
भिन्न है, दण्डन अधिकारी अन्तिम आदेश अविलम्ब जारी करें। अन्तिम आदेश जारी करने से
पूर्व जहाँ -
(क) लोक सेवा आयोग से
परामर्श आवश्यक
है वहाँ जाँच अधिकारी की रिपोर्ट प्राप्त होने के 6 सप्ताह के अन्दर
लोक सेवा आयोग से परामर्श किया जाय।
(ख) जिन प्रकरणों में लोक
सेवा आयोग से परामर्श आवश्यक नहीं है, जाँच अधिकारी की रिपोर्ट प्राप्त होने के 15
दिनों के अन्दर अन्तिम आदेश जारी किया जाय।
10- आरोपित सेवक की मृत्यु होने पर जाँच
पर उपशमन -
जब सरकारी सेवक का कृत्य या लोप, दुराचरण की श्रेणी का होना पाया जाय तब उसके
विरूद्ध अनुशासनिक कार्यवाही की जाती है। इस अनुशासनिक कार्यवाही में नैसर्गिक
न्याय के सिद्धान्त की अपेक्षानुसार उसे सुनवायी का उचित अवसर प्रदान किया जाना होता
है। यदि सरकारी, सेवक की मृत्यु हो जाए तब न तो उसे आरोपित किया जा सकता है, न ही
सुनवायी का अवसर प्रदान किया जा सकता है और न ही दण्डित किया जा सकता है। अत:
अनुशासनिक जाँच के दौरान आरोपित सेवक की मृत्यु हो जाए तब उसके विरूद्ध वह जाँच
उपशमित हो जाएगी।
11- सेवानिवृत्ति के उपरान्त जाँच -
सिविल सर्विस रेगुलेशन
के अनुच्छेद 351 एवं अनुच्छेद 351(ए) में सेवानिवृत्त सरकारी
सेवक के विरूद्ध कार्यवाही का उपबन्ध है। अनुच्छेद 351 के अधीन सरकारी सेवक द्वारा
पेंशनभोगी के रूप में किये गये दुराचरण के लिए दण्ड तथा 351(ए) के अधीन सेवा काल
में दुराचरण के लिए अनुशासनिक कार्यवाही की व्यवस्था है। सेवानिवृत्त कर्मचारी के
विरूद्ध अनुशासनिक कार्यवाही राज्यपाल की स्वीकृति बिना प्रारम्भ नहीं की जा सकती
है। सेवानिवृत्त सेवक को अनुशासनिक
जाँच में दोषी जाये जाने की दशा में निम्नांकित दण्ड अधिरोपित किया जा सकता है:-
(1) पेंशन पूर्णतया या अंशतया
स्थायी रूप से या विनिर्दिष्ट अवधि के लिए रोकना।
(2) पेंशन पूर्णतया या अंशतया
स्थायी रूप से या किसी भी विनिर्दिष्ट अवधि के लिए वापस लेना।
(3) शासन को हुई वित्तीय क्षति के
पूर्णतया या अंशतया पेंशन से वसूली।
(4) उपरोक्त परिस्थिति में
पारिवारिक पेंशन से वसूली।
(5) उपरोक्त परिस्थिति में
यथावश्यक उपादान (ग्रेच्युटी) से वसूली।
सेवानिवृत्त सरकारी सेवक के विरूद्ध कोई भी चर्चित दण्ड अधिरोपित करने से पूर्व उसे
अपना पक्ष प्रस्तुत करने का उचित अवसर दिया जायेगा। जाँच में दोषी पाये जाने पर
सेवानिवृत्त कर्मचारी को उक्त दण्ड देने के पूर्व श्री राज्यपाल के आदेश प्राप्त
किया जाना तथा लोक सेवा आयोग से परामार्श किया जाना आवश्यक होगा। सामान्यतया
आरोप-पत्र जारी किये जाने की तिथि से 4 वर्ष की अवधि के अन्दर की दुराचरण की घटना
के लिए ही अनुशासनिक जाँच की जानी चाहिए।
लेखा शाखा अधिनियम : 9. अनुशासनिक कार्यवाही
Reviewed by Brijesh Shrivastava
on
1:59 PM
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