लेखा शाखा अधिनियम : 5.शासकीय सम्पत्ति की संरक्षा

5-शासकीय सम्पत्ति की संरक्षा
1.    अभिप्राय एवं संदर्भ
                शासकीय सम्पत्ति की क्षति से तात्पर्य शासकीय धन, नकद, विभागीय राजस्व अथवा प्राप्तियाँ, स्टाम्प, भण्डार (स्कन्ध) एवं परिसम्पत्तियों से सम्बन्धित क्षतियों से है।
                क्षति की यह घटना मानवीय एवं प्राकृतिक दोनों ही कारणों से हो सकती है। अलग-अलग स्थितियों में इस प्रकार की क्षति को उच्चाधिकारियों, शासन एवं महालेखाकार को सूचित करने, उत्तरदायित्व निर्धारित करते हुए इनकी वसूली सुनिश्चित कराने की अलग-अलग प्रक्रिया निर्धारित की गयी है। उक्त प्रक्रिया वित्तीय हस्तपुस्तिका खण्ड-पाँच भाग-1 के प्रस्तर 82, 82-क एवं 82-ख तथा परिशिष्ट 19-ख एवं ग में विस्तार से वर्णित है।
2.    क्षति की सूचना का प्रेषण
(क)    किसी भी विभाग में शासकीय धन, विभागीय राजस्व अथवा प्राप्तियाँ, स्टाम्प, स्कंध (भण्डार), अथवा अन्य धन की क्षति की सूचना प्रकाश में आये तो इसकी सूचना तत्काल महालेखाकार एवं शासन को विभागाध्यक्ष अथवा मण्डल के आयुक्त के माध्यम से दी जानी चाहिए। उत्तरदायी व्यक्ति द्वारा क्षति को पूरा कर दिये जाने की दशा में भी सूचना का प्रेषण अनिवार्य है।
(ख)    महालेखाकार को सूचित किये जाने के लिए सामान्यतया यह पर्याप्त होगा यदि उच्च अधिकारी को गबन या क्षति की सूचना देने वाले रिपोर्ट की एक प्रति उन्हें भी पृष्ठाकिंत कर दी जाये। सूचना की इस प्रथम रिपोर्ट में निम्न तथ्यों को समाविष्ट किया जाना आवश्यक है-
  • हानि या गबन की सही प्रकृति यथा चोरी, जालसाजी, गबन आदि
  • उन परिस्थितियों का उल्लेख जिनसे गबन संभव हुआ।
(ग)    जब मामले की पूर्ण छानबीन कर ली जाय तो महालेखाकार को पुन: पूरी रिपोर्ट भेजी जानी चाहिए जिनमें निम्न बातों का उल्लेख हो
  • हानि की प्रकृति क्या है एवं मात्रा क्या है
  • नियमों में कोई त्रुटि थी अथवा उनकी उपेक्षा हुई जिससे हानि हुई
  • क्षतिपूर्ति की/वसूली की संभावनायें क्या हैं
            इस विस्तृत रिपोर्ट के भेज देने के बाद भी स्थानीय अधिकारी मामले में कोई अग्रेतर कार्यवाही कर सकते हैं जो उनके द्वारा आवश्यक मानी जाए।
(घ)    ऐसे मामले जिनमें रू0 1000 या कम की क्ष‍ति हुयी हो की सूचना महालेखाकार को भेजा जाना आवश्यक नहीं किन्तु निम्न प्रकरणों में अपवाद स्वरूप सूचना का प्रेषण आवश्यक है।
  • जब प्रकरण में कोई ऐसी विशेष महत्व की बात हो जो किसी जाँच की आवश्यकता उत्पन्न कर दे।
  • किसी व्यवस्था की कमी प्रकट होती हो जिसके सुधार के लिए शासन के आदेश की आवश्यकता हो।
  • किसी अधिकारी की ओर से बरती गयी गंभीर उपेक्षा के कारण उनके विरूद्ध अनुशासनिक कार्यवाही हेतु शासन के आदेश की आवश्यकता हो।
(ड.)    रू0 1000 से कम धनराशि के मामले को शासन को सूचित करने की आवश्यकता नहीं है। प्रशासनिक नियंत्रण की दृष्टि से यह आवश्यक है कि विभागाध्यक्षों द्वारा अपने प्रशासकीय विभाग को एक वार्षिक विवरण दिया जाय जिसमें इस प्रकार की क्षतियों को दर्शित की जाये।
(च)    शासकीय सम्पत्ति की क्षति मानवीय कारणों यथा कपट, चोरी एवं उपेक्षा या लापरवाही के अतिरिक्त प्राकृतिक कारणों यथा अग्नि, बाढ़, चक्रवात या भूकम्प से भी होती है। उपरोक्त कारणों से हुयी सरकारी परिसम्पत्तियों की क्षति की दशा में अपेक्षित कार्यवाही की प्रक्रिया भी वि0ह0पु0 खण्ड-पाँच भाग-1 के प्रस्तर 82(2) में वर्णित है। कार्यालय या विभाग में आग लगने, बाढ़, चक्रवात, भूकम्प आने या किसी अन्य प्राकृतिक कारण से किसी भी अचल सम्पत्ति जैसे भवन संचार  या अन्य कार्य को हुई गंभीर हानि की सूचना तत्काल सम्बन्धित अधीनस्थ अधिकारी द्वारा अपने विभागाध्यक्ष अथवा मण्डल के आयुक्त के माध्यम से शासन को प्रेषित की जाएगी। इस नियम को और स्पष्ट करते हुए यह भी कहा गया है कि
(i)    अचल सम्पत्ति की रू0 5000 से अधिक की हानि गंभीर क्षति मानी जाएगी।
(ii)    5000 से कम मूल्य की अचल सम्पत्ति की हानि की सूचना विभागाध्यक्ष अथवा मण्डलायुक्त को दी जाएगी इन्हें महालेखाकार अथवा शासन को सूचित करने की आवश्यकता नहीं है।
(iii)    सम्पत्ति के मूल्य का अर्थ पुस्तांकित मूल्य (Book Value) से होगा।
(छ)    हानि के कारण तथा मात्रा के सम्बन्ध में पूर्ण जाँच किये जाने के बाद व्यापक रिपोर्ट सम्बन्धित अधीनस्थ प्राधिकारी द्वारा अपने विभागाध्यक्ष अथवा मण्डलायुक्त के माध्यम से शासन को भेजी जाएगी तथा साथ ही उसी समय रिपोर्ट की प्रतिलिपि अथवा उसका सार महालेखाकार को भेजा जाना चाहिए।
3.    राजस्व की क्षति
(क)    शासकीय क्षतियों में एक अति महत्वपूर्ण क्षति राजस्व की हानि है। जब कोई राजस्व कतिपय कारण/कारणों से अवसूलनीय हो जाता है तो ऐसे हानि की स्थिति उत्पन्न होती है। ऐसी दशा में शासन को अपने राजस्व दावों को माफ/परित्याग करने की आवश्यकता पड़ती है। शासन द्वारा ऐसे अवसूलनीय राजस्व के अंश को बट्टे खाते में डालने हेतु विभिन्न स्तर के अधिकारियों को उनके सामने अंकित धनराशि की सीमा तक अधिकृत किया गया है (संलग्नक-1)
(ख)    यह कार्य पारदर्शी रूप में स्पष्ट कारणों के साथ किया जाना आवश्यक है। पूरी कोशिश की जानी चाहिए कि ऐसे प्रकरणों में पूर्ण पारदर्शिता बनी रहे तथा अधिकारी की आत्मपरकता का प्रयोग न होने पाये। विभागाध्यक्षों को महालेखाकार को एक वार्षिक विवरण, सम्प्रेषित करना चाहिए जिसमें गत वर्ष के दौरान स्वीकृत किये गये राजस्व के माफी/परित्याग को दर्शाया गया हो। इस विवरण में सक्षम प्राधिकारियों द्वारा उनमें निहित वैवेकिक शक्तियों का प्रयोग कर जो स्वीकृतियाँ दी गयी हों उन्हीं का उल्लेख होना चाहिए किसी विधि या विधि का बल रखने वाले नियम के अन्तर्गत दी गई छूट अथवा स्वीकृतियों का नहीं। इस विवरण में निम्न तथ्यों का उल्लेख होना चाहिए-
  • प्रत्येक माफी/परित्याग की स्वीकृति के आधार क्या थे ?
  • दोनो वर्ग की कुल स्वीकृतियों की धनराशि क्या थी ?
  • उन परिस्थितियों का संक्षिप्त उल्लेख किया जाये जिसके अन्तर्गत माफी/परित्याग की अनुमति प्रदान की गयी।
(ग)    सरकारी प्राप्तियों की हानि में न्यायालय द्वारा डिक्री की गई अवसूलनीय धनराशि तथा सरकार द्वारा दिये गये ऋण व अग्रिमों की अवसूलनीय धनराशि भी हानि का कारण होती है। इसके लिए आवश्यक है कि उस धनराशि को बट्टे खाते में डालने से पूर्व संतुष्ट हो लिया जाय कि
  • बकाया की वसूली असंभव है तथा ऋण व अग्रिम देने की प्रक्रिया में कोई शिथिलता या कमी नहीं है।
  • प्रशासकीय विभाग/विभागाध्यक्ष के बजट में पर्याप्त धनराशि उपलब्ध है।
(घ)    किसी शासकीय धन के गबन या दुर्विनियोग की दशा में यदि धन को उन्हें संवितरित किया जाना है जिन्हें देय था तो इस धन का पुन: आहरण किया जा सकता है। इसके पुन: आहरण की स्वीकृति उस प्राधिकारी द्वारा दी जाएगी जो प्रश्नगत धनराशि के समतुल्य धनराशि को बट्टे खाते में डालने की स्वीकृति देने हेतु सक्षम हो।
             उक्त धनराशि का पुन: आहरण मुख्य लेखाशीर्षक 8550-सिविल अग्रिम के अन्तर्गत सुसंगतपूर्ण 15 अंकों के लेखा शीर्षक में किया जायेगा। पुन: आहरण के पश्चात गबन के उत्तरदायित्व निर्धारण के फलस्वरूप जो भी अंश वसूला जाएगा वह उक्त लेखाशीर्षक में ही जमा किया जाएगा। आहरित अग्रिम  का जितना अंश अवसूलनीय रह जाएगा वह सक्षम प्राधिकारी की स्वीकृति से लेखा बट्टा में लिखा जाएगा (written off) तथा जिस लेखा शीर्षक में सम्बन्धित विभाग का व्यय विकलनीय (debitable) होता है उसी में 'हानि' के रूप में लेखा समायोजित किया जाएगा। (वित्तीय हस्त पुस्तिका खण्ड-पाँच भाग-1 का प्रस्तर 82(3))
(ड़)    शासकीय सम्पत्ति अथवा धन की सुरक्षा एवं व्यय के सम्बन्ध में यह मान्य सिद्धान्त  अपनाया गया है कि प्रत्येक सरकारी सेवक को इस धन की सुरक्षा एवं व्यय करने में उसी सावधानी व विवेक का प्रयोग करना चाहिए जो उसके द्वारा अपने निजी धन की सुरक्षा में प्रयुक्त किया जाता है। अत: किसी भी क्षति के उत्तरदायित्व के सम्बन्ध में वित्तीय हस्तपुस्तिका खण्ड-पाँच भाग-1 के प्रस्तर 82 में यह व्यवस्था अब विधिवत जोड़ दी गयी है कि प्रत्येक अधिकारी पूर्णत: तथा स्पष्टत: यह अनुभव करेगा कि वह अपनी ओर से कपट या उपेक्षा के माध्यम से सरकार को हुई क्षति के लिए व्यक्तिगत रूप से दायी होगा तथा कि वह किसी अन्य अधिकारी की ओर से कपट या उपेक्षा से उद्भूत किसी हानि के लिए उस विस्तार तक (सीमा तक) दायी होगा जिस सीमा तक यह दर्शित किया जा सकेगा कि उसने अपने कार्य या उपेक्षा द्वारा हानि में योगदान दिया था।
4.    कार्यालय की सम्पत्तियों की अभिरक्षा हेतु अन्य महत्वपूर्ण दिशा-निर्देश
(क)    कार्यालयों के  खुलने के समय अथवा बन्द होने के समय इस कार्य से सम्बन्धित कर्मचारियों की तैनाती में असावधानी होने अथवा ऐसे कर्मचारियों द्वारा अपने कार्य में लापरवाही बरते जाने से कार्यालय के सामानों की छिटपुट चोरी प्रकाश  में आती रहती है। इस प्रकार की समस्या से बचने के लिए वित्तीय हस्त पुस्तिका खण्ड-पाँच भाग-1 के परिशिष्ट 19-ग में दिशा निर्देश दिये गये हैं जो संलग्नक-2 में दृष्टव्य है। इसके अन्तर्गत यह स्पष्ट किया गया है कि कार्यालय खोलने या बन्द करने का कर्तव्य सभी मामलों में लिपिक को या नौकर को उनके कर्तव्य के अतिरिक्त तथा किसी भत्ता की अदायगी के बिना सौंपना चाहिए। यह सम्बद्ध कर्मचारी के नियमित कर्तव्यों के अतिरिक्त माना जायेगा तथा इसमें हुए किसी उपेक्षा के लिए उसे उत्तरदायी भी ठहराया जा सकेगा।
(ख)    उपर्युक्त के अतिरिक्त शासन द्वारा समय-समय पर अपने आदेशों द्वारा ऐसे सामान्य सिद्धान्त प्रतिपादित किये गये हैं जो सरकार को हुई क्षति के लिए उत्तरदायित्व के प्रवर्तन (enforcement of responsibility) को विनियमित करने के लिए है। इस प्रकार के सामान्य सिद्धान्त वि0ह0पु0 खण्ड-पाँच भाग-1 के परिशिष्ट-19 ख में संकलित है। इन शासनादेश एवं एतदविषयक अन्य नवीनतम शासनादेशों की जानकारी इस दृष्टि से अत्यधिक महत्व की है कि हानि के किसी प्रकरण में विभागीय कार्यवाही एवं दाण्डिक कार्यवाही को सम्पन्न कराने में किस प्रकार की सावधानी अपेक्षित है तथा कब और किस परिस्थिति में दोनों कार्यवाहियों में से कोई एक ही उचित होंगी अथवा कब दोनों साथ-साथ एवं किस क्रम में की जानी होगी।
5.    उपेक्षा या कपट के माध्यम से सरकार को हुयी क्षति के लिए उत्तरदायित्व का निर्धारण (वित्तीय हस्त पुस्तिका खण्ड-पाँच भाग-1 परिशिष्ट-19 ख)
(क)    शासकीय धन के प्रयोग में किसी भी राजकीय कर्मचारी से वही सावधानी अपेक्षित है जो व्यक्ति स्वयं के धन के उपयोग एवं अभिरक्षा में करता है।
(ख)    राजकीय धन की क्षति के लिए सरकारी कर्मी व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार होगा यदि यह सिद्ध हो जाये कि यह क्षति उसके द्वारा किये गये गबन/नियमों में की गयी अवहेलना या असावधानी से हुई हो।
(ग)    किसी अन्य सरकारी सेवक की ओर से की गयी कपट या उपेक्षा से हुयी हानि के लिए उस सीमा तक दायी होगा, जिस सीमा तक यह दर्शित किया जा सकेगा कि उसने अपने कार्य या उपेक्षा द्वारा हानि में योगदान दिया था।
(घ)    सरकार ईमानदार सरकारी सेवकों द्वारा लिये गये निर्णय के क्रम में हुयी शासकीय सम्पत्ति की क्षति को माफ करने के लिए तैयार है। साथ ही कर्तव्यों के प्रति लापरवाह एवं बेईमान सरकारी सेवकों को दण्डित करने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ है।
(ड़)    गबन या वित्तीय अनियमितता के प्रकरणों में त्वरित कार्यवाही किया जाना परम आवश्यक है। ऐसे प्रकरण को अविलम्ब उच्च अधिकारियों को सूचित किया जाना चाहिए ताकि नियमानुसार जाँच की कार्यवाही प्रारम्भ की जा सके।
(च)    जटिल अन्वेषण के लिए यदि प्रशासनिक अधिकारी विशेषज्ञ लेखाधिकारी की सहायता की अपेक्षा करता है तो उसे सरकार से तत्काल आवेदन कर विशेषज्ञ अधिकारी की मांग कर लेनी चाहिए लेकिन इसके पश्चात् जांच के त्वरित निस्तारण के लिए विभागीय अधिकारी तथा विशेषज्ञ अधिकारी जिम्मेवार होंगे।
(छ)    यदि ऐसा प्रतीत हो कि जाँच के अन्तर्गत प्रकरण में न्यायिक कार्यवाही किये जाने की आवश्यकता होगी तो ऐसे मामलों में विधिक सलाह तुरन्त लिया जाना चाहिए।
(ज)    ऐसे क्षति के मामलों में जहाँ किसी कर्मचारी/अधिकारी की अन्तर्ग्रस्तता परिलक्षित होती हो,  अभियोजन का प्रयास किया जाना चाहिए, जब तक कि विधिक सलाहकार यह न समझे कि दोष सिद्धि के लिए साक्ष्य पर्याप्त नहीं है। अभियोजन का प्रयास नहीं किये जाने के कारणों का उल्लेख पत्रावली पर अंकित कर उच्च अधिकारियों का अनुमोदन प्राप्त कर लेना चाहिए।
(झ)    जहाँ हानि अधीनस्थ कर्मचारियों के अपचार के कारण हुयी हो तथा उच्च अधिकारी के पर्यवेक्षण की शिथिलता भी परिलक्षित होती हो तो पर्यवेक्षण की शिथिलता जिससे यह अपचार संभव हुआ हो, के लिए उच्च अधिकारी को भी उत्तरदायी ठहराया जाना चाहिए।
(=)    धन सम्बन्धी दायित्व के विनिष्चय एवं अन्य प्रकार के अनुशासनिक कार्यवाही पर साथ-साथ विचार किया जाना चाहिए। धन सम्बन्धी दायित्व के विनिष्चय में प्रकरण की परिस्थिति के साथ-साथ कर्मचारी के वित्तीय स्थिति को भी देखा जाना चाहिए। दण्ड ऐसा न हो कि सेवक की दक्षता भविष्य में प्रभावित हो।
(ट)    यदि हानि कपट के माध्यम से हुआ हो तो दोषी व्यक्ति से क्षति की सम्पूर्ण धनराशि वसूल किये जाने का प्रयास किया जाना चाहिए। पर्यवेक्षण की शिथिलता यदि कपट को सुविधापूर्ण बनाती है तो त्रुटि करने वाले पर्यवेक्षण अधिकारी को समुचित रूप से या तो प्रत्यक्षत: क्षति के उचित अनुपात को पूरा करने की अपेक्षा करके या तो वेतन की अभिवृद्धि को स्थगित या कटौती करके दण्डित किया जा सकेगा।
(ठ)    सरकारी सेवक की असावधानी द्वारा खोये, क्षतिग्रस्त या नष्ट हुए सरकारी सम्पत्ति के ह्रासित मूल्य को सम्बन्धित कर्मचारी से वसूल किये जाने के सम्बन्ध में सदैव विचार किया जाना चाहिए। वसूल की जाने वाली धनराशि को सरकारी सेवक के अदा करने की क्षमता तक सीमित किया जा सकेगा। साइकिल को शामिल करते हुए सरकारी वाहनों के मामले में यह ह्रासित मूल्य 20 प्रतिशत एवं मशीनों की संगणना के लिए ह्रासित मूल्य 15 प्रतिशत प्रतिवर्ष संगणित किया जा सकेगा।
(ड)    सेवानिवृत्ति के उपरान्त एक बार स्वीकृत पेंशन को सेवानिवृत्ति के पूर्व किये गये किसी दुराचरण के परिणामस्वरूप कम नहीं किया जा सकता। अत: किसी अनियमितता एवं क्षति से सम्बद्ध पेंशन योग्य सरकारी सेवक के प्रकरण को अन्वेषण अधिकारी द्वारा पेंशन स्वीकृत करने वाले अधिकारी को तत्काल सूचित किया जाना चाहिए  ताकि कर्मचारी के पेंशन प्रकरण पर यथोचित निर्णय लिया जा सके।
(ढ)    कपट या अनियमितता के दोषी सरकारी सेवक सेवामुक्त होने की दशा में जांच से बच जाते हैं। इस आधार पर शेष जो दोषी हैं एवं सेवा में हैं उन्हें छोड़ने का आधार नहीं बनाया जाना चाहिए।
(ण)    ज्यों ही इस बात की आशंका हो कि दाण्डिक अपराध किया गया है सम्बन्धित विभाग के अधिकारी द्वारा इसकी रिपोर्ट जिला मजिस्ट्रेट को की जानी चाहिए एवं यथा आवश्यक पुलिस अन्वेषण की मांग की जानी चाहिए।
(त)    जिला मजिस्ट्रेट की सहमति पर सम्बन्धित विभाग द्वारा पुलिस अन्वेषण  की मदद हेतु विभागों के नियमों एवं प्रक्रिया से अवगत एक भिज्ञ अधिकारी जो सम्बन्धित अनियमितता से सम्बद्ध नहीं है नामित किया जाना चाहिए। यह अधिकारी अन्वेषण अधिकारी की हर प्रकार से मदद करेगा तथा साक्ष्यों एवं दस्तावेजों को अन्वेषण हेतु उपलब्ध कराया जाना सुनिश्चित  करेगा।
(थ)    अन्वेषण के पश्चात् यह निर्णय लिया जा सकेगा कि प्रकरण अभियोजन हेतु ले जाया जाये अथवा नहीं। अभियोजित न करने के मन्तव्य पर प्रकरण को शासन को भेजकर आदेश प्राप्त किया जाना चाहिए।
(द)    अभियोजित करने के विनिश्चय की दशा में विभागीय प्रतिनिधि अभियोजन अधिकारी के साथ विचार-विमर्श कर इस दिशा में अग्रेतर कार्यवाही सुनिश्चित करेंगे।
(ध)    जब पुलिस द्वारा मामला न्यायालय में लाया जाता है तो विभाग के वरिष्ठ अधिकारी सभी दस्तावेजी साक्ष्य यथा समय न्यायालय में पेश करने हेतु उचित व्यवस्था करेंगे। इस हेतु न्यायालय में कार्यवाही के दौरान उपस्थित रहने के लिए तथा अभियोजन कर्मचारी की सहायता के लिए  एक  अधिकारी को भी चिन्हित करेंगे।
(न)    यदि अभियोजन के परिणामस्वरूप किसी को दोषमुक्त किया जाता है या दण्ड अपर्याप्त प्रतीत होता है तो सम्बद्ध विभागीय अधिकारी अपील के औचित्य के सम्बन्ध में जिलाधिकारी से विचार-विमर्श कर उनकी अनुमति प्राप्त करेंगे तथा इस दिशा में अग्रेतर कार्यवाही सुनिश्चित करेंगे। उल्लेखनीय है कि दोषमुक्ति के विरूद्ध अपील केवल सरकार के आदेशों के अधीन की जा सकती है।
(प)    कपट या सरकारी निधियों के गबन के प्रकरण में जहाँ विभागीय जाँच एवं अभियोजन साथ-साथ प्रारम्भ हों वहाँ विभागीय कार्यवाही के श्रमसाध्य कार्य को विभागीय अधिकारी द्वारा प्रारम्भ नहीं किये जाने की सहज प्रवृत्ति होती है। यह स्वाभाविक अनिच्छा इस आशंका से भी बलवती होती है कि जाँच विधि के न्यायालय में परीक्षण के परिणाम पर प्रतिकूल  प्रभाव डाल सकेगा। परिणामस्वरूप विभागीय कार्यवाही में अधिक विलम्ब होता है तथा किसी निष्कर्ष पर पहुंच पाना संभव नहीं होता। अत: विभागीय जांच में विलम्ब नहीं किया जाना चाहिए।
(फ)    अनुभवों से पता चलता है कि विभागीय कार्यवाही एवं अभियोजन साथ-साथ नहीं चल पाते क्योंकि सारे साक्ष्य न्यायालय में दाखिल कर दिये जाते हैं। गबन के मामले में अधिकांश साक्ष्य लिखित दस्तावेज ही होते हैं। अत: ऐसे स्तर जहाँ तक विभागीय कार्यवाही अभियोजन के साथ-साथ की जा सकती है को परिभाषित नहीं किया जा सकता। किन्तु कम से कम उस स्तर के विभागीय जाँच सम्पन्न करायी जा सकती है जहाँ तक न्यायालय की कार्यवाही इसमें बाधा न उत्पन्न करती हो।
(ब)    एक ही जाँच में जहाँ कुछ के विरूद्ध अभियोजन तथा शेष के विरूद्ध विभागीय जाँच की आवश्यकता हो, विभागों द्वारा ऐसे मामले में औपचारिक विभागीय जाँच को संस्थित करने या अपेक्षित स्तर पर लाने में उपेक्षा बरतते हैं। सामान्यत: विभागीय कार्यवाही तब तक आरम्भ नहीं की जाती जब तक न्यायालय द्वारा मामले क निस्तारण नहीं कर दिया जाये। यह उचित नहीं है क्योंकि जब तक मामला कोर्ट के द्वारा निस्तारित किया जाता है काफी समय व्यतीत हो जाता है तथा विभागीय कार्यवाही असाध्य हो जाता है।
(भ)    गबन आदि के मामले में नियमत: विभागीय जाँच की कार्यवाही तत्काल सभी दोषी कर्मचारियों के विरूद्ध यथाशीघ्र आरम्भ की जानी चाहिए। अपचारियों में से किसी एक के अभियोजन के आरम्भ होने की स्थिति में शेष अपचारियों के विरूद्ध विभागीय कार्यवाही यदि साध्य हो तो उसे जारी रखना चाहिए। यदि न्यायालय द्वारा अभियुक्त को पर्याप्त दण्ड प्रदान किया जाता तो उसके विरूद्ध विभागीय कार्यवाही औपचारिक रूप से पूरी कर ली जायेगी तथा शेष अपचारियों के विरूद्ध कार्यवाही जारी रहेगी।
(म)    जहाँ कहीं किसी सरकारी सेवक के विरूद्ध अभियोजन के पर्याप्त साक्ष्य उपलब्ध हों तथा अभियोजन संभावित हो वहीं विभागीय कार्यवाही के साथ-साथ अभियोजन की कार्यवाही की जानी चाहिए अन्यथा विभागीय कार्यवाही ही प्रारम्भ करनी चाहिए। ऐसी विभागीय कार्यवाही में पुलिस अन्वेषण के साथ हस्तक्षेप करने की आवश्यकता नहीं है। विभागीय कार्यवाही के निष्कर्ष तथा उसके परिणाम स्वरूप अधिरोपित दण्ड के बाद अभियोजन के औचित्य पर विचार किया जा सकेगा। कुछ विशेष प्रकरणों में विभागीय कार्यवाही के पश्चात एवं परिणामस्वरूप यदि अभियोजन में जाने का विनिश्चय किया जाता हो तो ऐसा किया जाना चाहिए।
(य)    जहाँ सरकारी सेवक का आचरण दाण्डिक प्रकृति के गम्भीर अपराध को प्रकट करता है वहाँ अभियोजन नियम होना चाहिए न कि अपवाद (prosecution as a rule not exception)। अभियोजन को केवल इस आधार पर ही वर्जित नहीं किया जाना चाहिए कि मामला दोषमुक्ति की ओर अग्रसारित होगा।
(र)    यदि न्यायालय द्वारा अभियुक्त को दोषमुक्त कर दिया जाता है तो पूर्व में विभागीय कार्यवाही के परिणामस्वरूप लिये गये निर्णय का पुनर्विलोकन किया जाना आवश्यक होगा।
(ल)    ऐसे संशोधन में यह विचारणीय होगा कि विधिक कार्यवाही एवं विभागीय कार्यवाही क्या पूर्णत: समान आधार को ही आच्छादित करती है, यदि नहीं तो विभागीय निर्णय को संशोधित करने की आवश्यकता नहीं हैं। यह इसलिए भी आवश्यक है कि ऐसे मामले जिन्हें न्यायालय द्वारा किसी अपराध की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, उसे विभागीय कार्यवाही के अन्तर्गत दण्डित किया जा सकता है।
(व)    ऐसा अनुभव किया गया है कि सरकारी सेवकों के विरूद्ध रिश्वत लेने के मामले विभिन्न कारणों से न्यायालय में यदा-कदा ही सफल हो पाते हैं। अत: ऐसे प्रकरण में जहाँ अपचारी सरकारी सेवक के विरूद्ध प्रारम्भिक जाँच के आधार पर दोष सिद्ध करने के पर्याप्त साक्ष्य उपलब्ध हों वहाँ विभागीय कार्यवाही की जानी चाहिए। केवल आपवादित मामलों में जहाँ प्रारम्भिक जाँच यह स्पष्ट करता है कि दाण्डिक अभियोजन को प्रस्तुत करने के लिए मजबूत आधार है मामले को अन्वेषण हेतु पुलिस को सौंप देना चाहिए। यदि ऐसा अन्वेषण अपराध के समर्थन में सुनिश्चित साक्ष्य को प्रकट करता है तो प्रकरण को अभियोजन में ले जाने के  सम्बन्ध में निर्णय लिया जाना चाहिए।
6.    उपसंहार
            उपेक्षा या कपट के माध्यम से सरकार को हुयी क्षति के लिए उत्तरदायित्व के निर्धारण के सम्बन्ध में मार्गदर्शी सिद्धान्त, जिनके सम्बन्ध में ऊपर विस्तार से चर्चा की गयी है, वित्तीय हस्तपुस्तिका खण्ड-पाँच भाग-1 के परिशिष्ट-19 ख से उद्धृत किये गये हैं। उपर्युक्त सामान्य नियमों के अतिरिक्त शासन द्वारा समय-समय पर अपने आदेशों द्वारा उत्तरदायित्व के प्रवर्तन को विनियमित करने के लिए जो निर्देश दिये गये हैं उनके आलोक में प्रकरण विशेष को देखा जाना चाहिए।
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संलग्नक-1
बट्टे खाते में डालने के लिए अधिकृत करने हेतु सक्षम प्राधिकारी
हानि का प्रकार प्राधिकारी जो बट्टे खाते में डालने के लिए अधिकृत है परिसीमायें
1. दुर्घटनाओं, जालसाजी, असावधानी या अन्य कारणों से खोए या नष्ट हुए या क्षतिग्रस्त हुए भण्डारों एवं अन्य सम्पत्ति के वसूल न हो सकने वाले मूल्य या खोये सरकारी धन की वसूल न हो सकने वाली धनराशियों तथा भण्डार या लोकधन की अवसूलनीय हानियां जिसके अंतर्गत पूर्णत: नष्ट हुए स्टाम्पों की हानि भी सम्मिलित है, को बट्टे खाते में डालना।
1- कार्यालयाध्यक्ष               (प्रथम श्रेणी के अधिकारी) प्रत्येक मामले में रू0 2000/- बशर्ते कि एक वर्ष में रू0 10,000/- से अधिक की हानियां बट्टे खाते में न डाली जायें।
2- विभागाध्यक्ष

प्रत्येक मद में रू0 20,000/- की सीमा तक, किन्तु एक वर्ष में कुल रू0 50,000/- की अधिकतम सीमा तक
3- मण्डलायुक्त राजस्व विभाग के सम्बन्ध में :-
प्रत्येक मद में रू0 20,000/- की सीमा तक, किन्तु एक वर्ष में कुल रू0 50,000/- की अधिकतम सीमा तक।
4- प्रशासकीय विभाग प्रत्येक मद में रू0 20,000/- से अधिक तथा रू0 50,000/- की अनधिक की सीमा तक, बशर्ते मदों के समूह का कुल मूल्य रू0 1,00,000/- से अधिक न हो।
2. राजस्व की हानि (जिसके अन्तर्गत न्यायालयों द्वारा डिक्री की गयी अवसूलनीय धनराशि भी सम्मिलित है) या अवसूलनीय ऋण या अग्रिम धन का बट्टे खाते में डालना। 1- विभागाध्यक्ष
प्रत्येक मद में रू0 5000/- की सीमा तक, प्रतिबन्ध यह है कि प्रशासकीय विभाग को यथानुसार अवगत कराया जाये।
2- मण्डलायुक्त
राजस्व विभाग के सम्बन्ध में :-
रू0 5,000/- की सीमा तक किन्तु प्रतिबंध है कि प्रशासकीय विभाग को यथानुसार अवगत कराया जाय।
3-प्रशासकीय विभाग रू0 10,000 की सीमा तक स्वयं एवं रू0 10,000 से अधिक तथा रू0 1,00,000/- की सीमा तक वित्त विभाग की सहमति से।
संलग्नक-2
I.    शासनादेश संख्या ए-725/एक्स-290-35, दिनांक  3 जून, 1936
            मुझे यह कहने का निर्देश हुआ है कि सरकार के ध्यान में यह लाया गया है कि कतिपय कार्यालयों में कार्यालय को खोलने या बन्द करने का कर्तव्य लिपिकीय या नौकर संगठन को सौंपा जाता है, जिसके लिए मामूली भत्ता अदा किया जाता है। सरकार ने यह निश्चय किया है कि इन भत्तों को समाप्त कर देना चाहिए तथा हमें यह अनुरोध करना है कि यदि कोई ऐसा भत्ता आपके कार्यालयों में या आपके अधीनस्थ कार्यालय में अदा किया जाता है, तो इसे तत्काल बन्द कर देना चाहिए तथा तथ्य की सूचना सरकार को देनी चाहिए। मुझे यह जोड़ना है कि कार्यालय को खोलने एवं बन्द करने का कर्तव्य सभी मामलों में लिपिक को या नौकर को, उनके कर्तव्य के अतिरिक्त तथा किसी भत्ता की अदायगी के बिना, सौंपना चाहिए। यदि यह कर्तव्य नौकर को सौंपा जाता है, तो उससे उत्तरदायी कर्मचारी के पर्यवेक्षण के अधीन कार्य को करने की अपेक्षा की जानी चाहिए।
II.    शासनादेश संख्या ए-4860/एक्स-127-48, दिनांक 30 सितम्बर, 1948
             मुझे आपका ध्यान शासनादेश संख्या ए-725/एक्स-290-35, दिनांक 3 जून, 1936 को और आकर्षित करने तथा यह कहने का निर्देश हुआ है कि सरकार के ध्यान में यह लाया गया है कि कार्यालयों को खोलने तथा बन्द करने के समय सरकारी सम्पत्ति की देखभाल के कर्तव्य को कर्मचारियों को सौंपने के सम्बन्ध में उक्त सरकारी आदेश में जारी निर्देशों को कठोरता से पालन नहीं किया जा रहा है। परिणामस्वरूप सरकारी कार्यालयों में लोहे की अलमारियों, बाईसाईकिलों, टाइप राइटरों, दीवार घड़ियों इत्यादि की चोरी की संख्या में वृद्धि हुई है। इसलिए, मुझे इस प्रभाव के आदेश को जारी करने के लिए आपसे अनुरोध करना है कि प्रत्येक कार्यालय के अध्यक्ष को कार्यालय को खोलने तथा बन्द करने के कर्तव्य को विनिर्दिष्ट लिपिकवर्गीय कर्मचारी/कर्मचारियों (specified ministerial employee) को आबंटित करना चाहिए। यह सम्बद्ध कर्मचारी (या कर्मचारियों) द्वारा धारित पद के नियमित कर्तव्यों के भाग के रूप में माना जाना चाहिए, जिसे किसी क्षति के लिए उत्तरदायी बनाना चाहिए, जो इस कर्तव्य के सम्बन्ध में उनके ओर से किसी उपेक्षा के कारण हो सकेगा। उन्हें कार्यालय के खोलने या बन्द करने के समय यह देखने का निर्देश दिया जाना चाहिए कि कार्यालय में कुछ खो नहीं रहा है।
            इसको सुनिश्चित करने का सर्वोत्तम मार्ग यह होगा कि प्रत्येक बार जब कार्यालय खोला जाय या बन्द किया जाय तो कार्यालय की प्रत्येक वस्तु को उस सूची से मिलाया जाय जो प्रत्येक कक्ष की सम्पत्ति के सम्बन्ध में इस उद्देश्य से दी गयी है तथा उस कक्ष में विशेष प्रदर्शित है।
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लेखा शाखा अधिनियम : 5.शासकीय सम्पत्ति की संरक्षा Reviewed by Brijesh Shrivastava on 2:34 PM Rating: 5

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