शिक्षा और सरकार : नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट का पोस्टमॉर्टेम करता नवभारत टाइम्स का संपादकीय

राइट टू एजुकेशन (आरटीई) का राज्य सरकारों ने जो हाल कर रखा है, उससे जाहिर है कि हमारे नेतृत्व वर्ग को शिक्षा की कोई परवाह नहीं है। कुछेक अपवादों को छोड़कर यह कानून नौकरशाहों के खाने-पकाने का जरिया बनकर रह गया है। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) ने शुक्रवार को संसद में पेश अपनी रिपोर्ट में आरटीई को लेकर हो रही गड़बड़ियों का खुलासा किया है। उसने ध्यान दिलाया है कि इसके तहत जो पैसे दिए जाते हैं, वे खर्च ही नहीं हो पाते।



रिपोर्ट के मुताबिक राज्य सरकारें कानून लागू होने के बाद के छह सालों में उपलब्ध कराए गए कुल फंड में से 87, 000 करोड़ रुपये का इस्तेमाल ही नहीं कर पाईं। उसने यह भी ध्यान दिलाया कि 2010-11 से 2015-16 के बीच वित्त वर्ष की समाप्ति पर दिखाए गए क्लोजिंग बैलेंस और अगले वर्ष के शुरुआती बैलेंस में फर्क पाया गया है। साफ है कि पारदर्शी तरीके से कुछ भी नहीं हो रहा। कागज पर लीपापोती हो रही है, अनाप-शनाप खर्च किए जा रहे हैं लेकिन जरूरतमंद बच्चों को तालीम दिलाने का असल मकसद ही पूरा नहीं हो रहा।




शिक्षा का अधिकार कानून के तहत शुरुआती तीन वर्षों में सरकार को स्कूलों की कमी दूर करनी थी। लेकिन सात साल के बाद भी स्कूल नहीं बने हैं। दिल्ली, उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में स्कूल टेंटों या खुले में चल रहे हैं। बीते सात सालों में अगर गंभीरता से काम हुआ होता तो सरकारी स्कूलों की दुर्दशा दूर हो गई होती और आंख मूंदकर निजी स्कूलों की ओर भागने के सिलसिले पर भी थोड़ी-बहुत रोक लगी होती।




आज आलम यह है कि हर व्यक्ति अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूल में भेजना चाहता है। कैग की ही एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार सरकारी स्कूलों में वर्ष 2010-11 में कुल नामांकन 1 करोड़ 11 लाख था, जो 2014-15 में 92 लाख 51 हजार रह गया है, जबकि निजी स्कूलों में छात्रों की संख्या 2011-12 से 2014-15 के बीच 38 प्रतिशत बढ़ी है। प्राइवेट स्कूलों की नजर सिर्फ मुनाफे पर है। ‘एसोचैम’ की एक स्टडी बताती है कि बीते दस सालों के दौरान निजी स्कूलों ने अपनी फीस में लगभग 150 फीसद बढ़ोतरी की है। ऐसे में जरूरतमंद बच्चे कहां जाएं।



राजनीति के लिए शिक्षा आज भी चुनावी मुद्दा नहीं बन पाई है। सरकार को पता है कि जो ताकतवर तबका राजनीति और प्रशासन पर असर डाल सकता है, उसे सरकारी स्कूलों से कोई मतलब नहीं है। जबकि गरीबों के लिए रोजी-रोटी की समस्या ही इतनी अहम है कि वे मिड डे मील से ही खुश हैं, बेहतर शिक्षा के लिए आवाज उठाने की बात वे सोच भी नहीं सकते। केंद्र सरकार अगर भारत को एक शिक्षित समाज बनाना चाहती है तो उसे जीएसटी जितनी ही तवज्जो आरटीई को भी देनी होगी। कैग ने आरटीई को लेकर जो सुझाव दिए हैं, उन पर गौर करने की जरूरत है।

शिक्षा और सरकार : नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट का पोस्टमॉर्टेम करता नवभारत टाइम्स का संपादकीय Reviewed by प्राइमरी का मास्टर 1 on 6:19 AM Rating: 5

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