पढ़ाई पर हो मुख्य फोकस तो बेसिक शिक्षा में बनेगी बात, नवभारत टाइम्स के पैनल डिस्कशन में निकली विशेषज्ञों की राय
प्राइमरी शिक्षा यानी समाज के भविष्य की नींव। यह नींव जितनी मजबूत होगी, उतना ही बेहतर समाज बनेगा। इस नींव की दिशा और दशा क्या हो, यह हमेशा बड़ा मुद्दा रहा है। सरकार से लेकर समाज तक इस पर लंबी बहस भी होती रही हैं। सरकारें आती हैं, जाती हैं और बड़े-बड़े वादे किए जाते हैं। खासतौर से बात सरकारी शिक्षा की हो तो यह साफ है कि इस पर खर्च लगातार बढ़ता गया। शिक्षकों का वेतन भी बढ़ गया। उनकी योग्यता में भी कोई कमी नहीं है, लेकिन सरकारी प्राइमरी शिक्षा का स्तर लगातार गिरता गया। कुछ सुधार भी हुए, लेकिन वे स्थायी साबित नहीं हुए। अब प्रदेश में नई सरकार बनी है। नई प्रदेश सरकार के भी कुछ वादे और इरादे हैं। शिक्षा में आखिर खामियां कहां हैं और क्या सुधार हो सकते हैं/ ऐसे ही मुद्दों पर विशेषज्ञों को बुलाकर एनबीटी ने मंगलवार को टॉक शो किया। इसमें शामिल सोशल वर्कर, शिक्षकों और अधिकारियों ने सिस्टम की खामियों पर चर्चा की और अहम सुझाव भी दिए। सभी ने माना कि सुधार के लिए हम सबको जिम्मेदारी लेनी होगी। बच्चे और उनकी पढ़ाई पर फोकस होगा, तभी सुधार होगा। ऐसे ही कुछ अहम सुझावों के बारे में बता रहे हैं :-
★ सुधार के उपाय
● सभी सरकारी स्कूलों और कॉलेजों का आधुनिकीकरण।
● प्राइवेट स्कूलों की फीस व्यवस्थित करने के लिए एक पैनल बनाना।
● हर सरकारी विद्यालय में एक शिक्षक और एक कक्ष के न्यूनतम अनुपात को शत-प्रतिशत लागू करना।
● प्रदेश के सभी शिक्षा मित्रों की रोजगार की समस्या को 3 महीने में न्यायोचित तरीकों से सुलझाना।
● प्राथमिक शिक्षा से योग शिक्षकों को शारीरिक शिक्षक पद पर नियुक्त करना।
★ विशेषज्ञों के सुझाव
● सरकारी स्कूलों में फोकस बच्चों और उनकी शिक्षा पर हो।
● शिक्षकों से पढ़ाई के अलावा दूसरे काम न लिए जाएं।
● टीचर्स की प्रॉपर ट्रेनिंग हो, ताकि शिक्षा में होने वाले नए बदलावों से वे अपडेट रहें।
● शिक्षकों को घर के नजदीक तैनाती दी जाए।
● हेड मास्टरों को अधिकार दिए जाएं।
● सीसीएल (चाइल्ड केयर लीव) के लिए मानक और शर्तें तय की जाएं।
● प्राइमरी स्कूलों में सामुदायिक भागेदारी बढ़ाने के साथ ही जिम्मेदार बनाया जाए।
● स्कूलों में संसाधन और शैक्षिक गुणवत्ता दोनों बढ़ाई जाएं।
● सरकारी अफसर और कर्मचारी भीअपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाएं।
● सरकारी स्कूलों में अंग्रेजी माध्यम को बढ़ावा दिया जाए।
● प्री स्कूलिंग के तौर पर आंगनबाड़ी का ढांचा और मजबूत किया जाए।
● सिर्फ सरकार या टीचर जिम्मेदार नहीं
● सभी को लेनी होगी सुधार की जिम्मेदारी
प्राइमरी एजुकेशन पर एनबीटी दफ्तर में हुए पैनल डिस्कशन में विशेषज्ञों ने शिक्षा में सुधार के लिए दिए अहम सुझाव
हर स्कूल में स्कूल प्रबंधन समिति है। इसमें अभिभावक और समाज के जिम्मेदार लोगों को रखा जा सकता है, ताकि सुधार में सामुदायिक भागेदारी हो। सरकारी स्कूलों में इनका अपेक्षित सहयोग नहीं मिलता। प्राइवेट भागेदारी की जहां बात आती है तो यह देखा गया है कि वह अपने लिए तो काम करता है, लेकिन सरकारी सिस्टम के लिए मुफ्त में उतना सहयोग नहीं देना चाहता। शिक्षा के खराब स्तर के लिए सिर्फ सरकार या शिक्षकों को दोष नहीं दिया जा सकता।
हमें वास्तव में सुधार करना है तो समग्रता में विचार करना होगा। एक समय था कि बच्चों के अनुपात में जरूरत भर के टीचर्स होते थे। कई साल तक भर्तियां नहीं हुईं। इससे मोहभंग हुआ। इस दौरान फिर कुछ टीचर भर्ती हुए, लेकिन जो गैप हो गया, उसे भरना मुश्किल हो रहा है।
शिक्षक भी पढ़ाना चाहते हैं लेकिन उनकी प्राथमिकता तो यह है कि बच्चों को पकड़कर स्कूल लाएं। कुछ दिक्कतें हो सकती हैं, लेकिन सुधार के लिए आम जनता से लेकर सरकार तक सभी को जिम्मेदारी लेनी होगी।
एक-दूसरे पर दोषारोपण से काम नहीं चलेगा। शिक्षक, अभिभावक, सरकारी तंत्र और समाज को मिलकर काम करना होगा। खामियां सिस्टम के स्तर से भी हैं। कुछ गड़बड़ होगा तो सबसे पहले हेडमास्टर जिम्मेदार होगा, लेकिन उसके पास अधिकार यह भी नहीं है कि अपने शिक्षक को छुट्टी का सही कारण भी जान सके। हर स्कूल में स्कूल मैनेजमेंट कमिटी बनी हुई है। गार्जियन और समाज के अन्य लोग उसमें होते हैं, लेकिन वे भी अपनी जिम्मेदारी ठीक से नहीं निभाते।
शिक्षकों से अपेक्षाएं बहुत हैं और पढ़ाई न होने का दोष भी शिक्षकों पर भी मढ़ दिया जाता है। ऐसा नहीं है कि शिक्षक पढ़ाते नहीं, या पढ़ाना नहीं चाहते। पल्स पोलियो, जनगणना, मतदाता सूची, मतदान से लेकर हर सरकारी काम में उसकी ड्यूटी लगा दी जाती है। पढ़ाई छोड़ हर काम पर फोकस है। सालभर किताबें नहीं मिलतीं, स्कूल ड्रेस से लेकर मिड-डे-मील तक की सारी जिम्मेदारी शिक्षकों पर है। इन सबसे शिक्षकों को मुक्त कर दिया जाए तो सरकारी स्कूल किसी से पीछे नहीं रहेंगे।
बच्चे हमारी प्राथमिकता में होंगे, तभी कुछ बेहतर हो सकेगा। स्कूल, शेल्टर होम, लेबर डिपार्टमेंट से लेकर राजनीतिक स्तर पर कहीं भी बच्चे हमारी प्राथमिकता में नहीं हैं। बात सिर्फ संसाधनों की नहीं है बिल्कि क्वालिटी ऑफ सर्विस प्रोवाइडर भी अहम मुद्दा है। एक ही किताब पढ़कर मेडिकोज डॉक्टर बनते हैं लेकिन कोई बहुत अच्छा इलाज करता है और कोई नहीं कर पाता। बच्चों और अभिभावक को दोष देने से कुछ नहीं होगा। हमें जिम्मेदारी लेनी होगी।
सरकारी स्कूलों में एक बच्चे पर जितना खर्च होता है, उतनी ही फीस पर बच्चा दून स्कूल जैसे बड़े बोर्डिंग स्कूल में पढ़ सकता है। इसके बावजूद पढ़ाई में सरकारी स्कूल कहीं नहीं ठहरते। हर बच्चे के अंदर काफी जिज्ञासा है और अभिभावक भी पढ़ाना चाहते हैं। स्कूल मैनेजमेंट कमिटी में पार्षद और ग्राम प्रधान भी होते हैं, लेकिन वे भी बच्चों की शिक्षा में रुचि नहीं लेते। स्कूल स्तर से लेकर प्रशासनिक और राजनीतिक स्तर तक इच्छाशक्ति की कमी है।
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