विभाग हर साल की तरह इस बार भी बेहद आराम में, सत्ता बदल गई, लेकिन उसके काम का तरीका नहीं - बेसिक शिक्षा पर नवभारत टाइम्स का संपादकीय
⚫ तबेले हों कि टपकते हों, स्कूल चलो!
नव-निर्मित मुख्यमंत्री सचिवालय से बहुत दूर नहीं जाना है। किसी भी दिशा में पांच किमी के दायरे में ऐसे सरकारी स्कूल मिल जाएंगे, जो इस बारिश में टपक रहे हैं। जहां आवारा ढंगरों ने गोबर कर रखा है या कुत्तों-सूअरों ने डेरा जमा लिया है या किसी ने दीवार में छेद कर रात में सिर छुपाने की जगह बना रखी है या किसी दबंग ने कब्जा करने की नीयत से कुछ सामान ठूंस दिया है। वहां पढ़ने आए बच्चे भी मिल जाएंगे और कुछ अध्यापक भी। जुलाई है, स्कूल खुल गए हैं। ‘स्कूल चलो अभियान’ का मौसम है। मुफ्त में स्कूल ड्रेस, किताबें, बस्ता वगैरह बंटने का मौसम है। इसलिए भी बच्चे आ रहे हैं। टीचर दिख रहे हैं। कहीं-कहीं स्कूल में सफाई भी दिखती है, लेकिन बारिश में जलभराव ने सब बराबर कर दिया है।
शिक्षा विभाग हर साल की तरह इस बार भी बेहद आराम से है। सत्ता बदल गई, लेकिन उसके काम का तरीका नहीं बदला। समय पर स्कूल-ड्रेस के टेंडर, कॉपी-किताबों की छपाई की व्यवस्था इस बार भी नहीं हुई। पिछली बार के जो स्कूल-बस्ते बचे थे, उनमें अखिलेश यादव की तस्वीर है। वह बांटी नहीं जा सकती। यह अफसरों ही का कारनामा है। कल अखिलेश की फोटो छापने वाले आज योगी की तस्वीर छापना चाह रहे होंगे। सिर्फ इशारे की देर है। सारा जोर इसी ‘सेवा भाव’ में है। बच्चों की पढ़ाई, पढ़ने लायक जरूरी माहौल देने की चिंता किसे है।
जैसे-तैसे कुछ व्यवस्था करके मुख्यमंत्री से कुछ जिलों में बच्चों को पाठ्य-सामग्री बंटवाई जा रही है। बाकी आधा साल बीतने तक बंटेगा, जब टेंडर के बाद सामान आने लगेगा। किसी को कोई जल्दी नहीं है कि पढ़ाई समय पर शुरू हो, बच्चे अच्छी तरह पढ़ें, पास हों और आगे बढ़ें। मुख्य चिंता इसकी है कि मुख्यमंत्री का कार्यक्रम अच्छी तरह निपट जाए। उनके हाथों कुछ बच्चों को पाठ्य-सामग्री मिल जाए। बस, फिर तो जंग जीत ली। यह तंत्र मुख्यमंत्री और मंत्रियों को खुश कर लेने और एक-दूसरे की पीठ ठोक लेने का काम बहुत बढ़िया करता है। इसीलिए प्रचार और जमीनी सच्चाई के बीच हमेशा बड़ी खाई होती है।
जिन स्कूलों में अब तक मुख्यमंत्री ने पाठ्य-सामग्री बांटी है, वे अफसरों के चुने स्कूल हैं। जाहिर है, वे बेहतर हालत में हैं और रातों रात चमका भी दिए गए होंगे। वर्ना, मुख्यमंत्री आवास में बच्चों को बुला लिया। सौ फीसदी टंच काम। सरकारी स्कूलों का हाल राजधानी में भी दयनीय है और बस्ती, बुलन्दशहर में भी। वहां कोई कार्यक्रम नहीं होगा। वहां स्कूल भवन खंडहर बना रहेगा, जहां छतें टपकती रहेंगी, दरवाजे-खिड़की गायब होंगे या मवेशी गोबर करते होंगे। इसके बावजूद जहां टीचर होंगे और स्कूल चलता होगा।
यह बरसों पुराना दृश्य है और आज तक वैसा ही चला आ रहा है। निजी स्कूलों की पंचतारा शृंखला खुल गई, लेकिन सरकारी प्राइमरी-मिडिल स्कूलों का हाल न बदला। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि लखनऊ में ही बहुत सारे स्कूल-भवन असुरक्षित घोषित हैं यानी कभी भी गिर सकते हैं। उनमें बच्चों को बैठाना खतरनाक है। स्कूल चलो अभियान के किसी जिम्मेदार को ‘असुरक्षित’ स्कूल भवन से खतरा नहीं है। वे ड्यूटी परम भक्ति-भाव और निष्ठा से करते आए हैं। यह ‘ड्यूटी’ जारी रहेगी, पूरे समर्पण से, कोई सरकार हो!
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