नई शिक्षा नीति से उम्मीदें : पूरे देश में एक समान पाठ्यक्रम नई शिक्षा नीति की सबसे बड़ी जरूरत


सफलता की कसौटी:-
नई नीति की सफलता इस पर निर्भर करेगी कि वह सबको समान शिक्षा का अवसर देने की राह को कितना सुगम बनाती है।

केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने पिछले दिनों कोलकाता में पश्चिम बंगाल समेत पूर्वी भारत के अन्य राज्यों के शिक्षा मंत्रियों के साथ बैठक कर नई शिक्षा नीति के मसौदे पर चर्चा करते हुए मौजूदा नीति की कमियों को दूर करने का जो भरोसा दिया वह बेहद महत्वपूर्ण है। मौजूदा शिक्षा प्रणाली की सबसे बड़ी खामी यह है कि देश में एकसमान पाठ्यक्रम लागू नहीं है और न सबको एकसमान शिक्षा के अवसर हासिल हैं। सबके लिए विकास की भांति सबको एकसमान पढ़ने और आगे बढ़ने का मौका मिलना ही चाहिए। विडंबना यह है कि सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले सुदूर गांवों के विद्यार्थियों को सीखने के वे अवसर नहीं हासिल हैं जो मिशनरी, कान्वेंट, पब्लिक, आवासीय अथवा अंतरराष्ट्रीय स्कूलों के विद्यार्थियों को हासिल हैं। पब्लिक स्कूलों के सामने सरकारी विद्यालय बेबस नजर आते हैं। मौजूदा शिक्षा प्रणाली ने इस देश के भीतर दो देश बना दिए हैं। एक संपन्न लोगों का देश है और दूसरा गरीब लोगों का। मिशनरी और कान्वेंट स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे एक्टिव लर्निग बोर्ड की सहायता से स्मार्ट क्लास रूम में पढ़ते हैं। शहरों में ऐसे स्कूलों में नर्सरी तक में दाखिला बहुत कठिन होता है। कोलकाता के एक स्कूल में तो बच्चे के दाखिले के पहले अभिभावकों से पहला प्रश्न यही पूछा जाता है कि उनके यहां कितनी कारें हैं। ऐसे स्कूलों में दाखिले की पहली शर्त आर्थिक हैसियत होती है।

दूसरी तरफ गांवों व शहरों के सरकारी विद्यालयों में संसाधनों की भारी कमी पाई जाती है। पब्लिक स्कूलों की तुलना में सरकारी विद्यालयों के विद्यार्थियों को न एकसमान पाठ्यक्रम मयस्सर हैं, न एकसमान सुविधा, किंतु कालेजों में दाखिले के लिए उन्हीं विद्यार्थियों से उन्हें प्रतियोगिता करनी पड़ती है। दूसरी प्रतियोगी परीक्षाओं में भी दोनों को एकसमान प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है। जब एकसमान शिक्षा नहीं दी गई तो प्रतियोगी परीक्षाओं में दोनों से एकसमान प्रश्न पूछना कितना वाजिब है। इसीलिए नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली राजग सरकार इस खाई को पाटना चाहती है। यह खाई तभी पाटी जा सकेगी जब राष्ट्रीय स्तर पर बनने वाले पाठ्यक्रम की अस्सी प्रतिशत सामग्री राज्यों में अनिवार्य रूप से स्वीकार की जाए। बीस प्रतिशत सामग्री राज्यों द्वारा स्थानीय महत्व व विरासत को ध्यान में रखते हुए शामिल की जा सकती है। जब तक पूरे देश में कम से कम अस्सी प्रतिशत पाठ्यक्रम एकसमान नहीं लागू होगा तो एकसमान शिक्षा व्यवस्था कैसे लागू होगी। इसलिए पाठ्यक्रम में 80:20 के अनुपात का प्रसंग नई शिक्षा नीति के मसौदे में अवश्य शामिल किया जाना चाहिए। इस संदर्भ में केंद्र सरकार को राज्यों से भी मशविरा करना चाहिए। अच्छी बात है कि केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री वैसा कर रही हैं।

नई शिक्षा नीति को अंतिम रूप देने के पहले केंद्र सरकार द्वारा सभी राज्यों से मशविरा किए जाने और सभी विश्वविद्यालयों से सुझाव मांगे जाने के समानांतर जमीनी स्तर से भी सुझाव आमंत्रित किए जाने का आशय स्पष्ट है कि वे दिन अब लद गए जब नीतियां विशेषज्ञ बनाते थे। कदाचित इसीलिए प्रस्तावित नई शिक्षा नीति से जहां तक संभव हो, सुदूर क्षेत्रों के आम लोगों को भी जोड़ने की कोशिश हो रही है। नई शिक्षा नीति की सफलता इस पर निर्भर करेगी कि वह देशभर में एकसमान पाठ्यक्रम लागू करने और सबको एकसमान शिक्षा का अवसर देने की राह को कितना सुगम बनाती है। जब सभी विद्यार्थी एक ही पाठ्यक्रम पढ़ेंगे तो एक ही धरातल पर आगे बढ़ेंगे। यह भी देखना होगा कि नई शिक्षा नीति उन छात्रों को भी कितना लाभ पहुंचा पाती है जो गांवों में रहते हैं तथा संसाधनों तक सीमित पहुंच व अनुपलब्धता के कारण अपनी शिक्षा जारी नहीं रख पाते। भारत में डिग्री-डिप्लोमा देने वाली 45,000 शिक्षण संस्थाएं हैं। भारत में 659 विश्वविद्यालय और 35,000 कालेज हैं, फिर भी 18-25 वर्ष आयु वर्ग के लोगों में से केवल सात प्रतिशत लोग ही उच्च शिक्षा में दाखिल हो पाते हैं। इसलिए नई शिक्षा नीति को सभी वर्गो के लिए ज्ञान, कौशल और रोजगार के समान अवसर देने के प्रति प्रतिबद्ध होना चाहिए। नई शिक्षा नीति के मसौदे में यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि राजनीतिक पसंद के आधार पर नियुक्तियां न हो पाएं। मेधाओं की उपेक्षा न हो। राजनीतिक नापसंद के कारण मेधाओं को खारिज करने की परिपाटी खत्म कर ही पारदर्शिता लाई जा सकेगी। शिक्षा के क्षेत्र में कोई गुणात्मक परिवर्तन पारदर्शिता लाकर ही किया जा सकता है।

नई शिक्षा नीति के मसौदे को अंतिम रूप देने के पहले ही केंद्र सरकार ने शैक्षणिक सुधार के ठोस कदम उठाए हैं। केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी की पहल पर इसी शिक्षा सत्र से लगभग सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों में क्रेडिट सिस्टम सीबीसीएस लागू कर दिया गया है। क्रेडिट पाठ्यचर्या के मूल्यांकन की इकाई है, जिसका मान-निर्धारण कार्य-दिवसों के बजाय वास्तविक शिक्षण-अध्ययन के घंटों पर किया गया है। एक अकादमिक वर्ष में 2 सेमेस्टर होंगे और एक क्रेडिट के लिए प्रति सेमेस्टर 30 घंटे निर्धारित हैं। अनिवार्य और ऐच्छिक पाठ्यचर्याओं के बीच 70 और30 का अनुपात रहेगा। स्वच्छता अभियान, पर्यावरण संरक्षण देश के महापुरुष, सामाजिक वानिकी और अधिकार, कर्तव्य जागरूकता कार्यक्रम जैसी कुछ क्रेडिट रहित पाठ्यचर्याएं भी होंगी। ऐसे पाठ्यक्रमों का उद्देश्य विद्यार्थियों को संस्कारी, संयमी और अनुशासित बनाना है। प्रसंगवश आज अकेले बंगाल के शैक्षणिक संस्थानों में अनुशासनहीनता की हालत यह है कि यहां के राज्यपाल को विश्वविद्यालयों तथा कालेजों में आचरण विधि लागू करने का सुझाव देना पड़ा है। इन पाठ्यचर्याओं से विद्यार्थी अनुशासन के महत्व को जान सकेंगे, भारत और भारतीयता तथा देश के महापुरुषों को जान सकेंगे। वे समरसता के बारे में जान सकेंगे। समरस भारत के निर्माण के लिए यह आवश्यक है। ये पाठ्यचर्याएं विद्यार्थियों को शिक्षित बनाने के साथ ही समर्थ भी बनाएंगी। इन पाठ्यचर्याओं में भागीदारी संतोषजनक श्रेणी में होना आवश्यक है। कहना न होगा कि शिक्षा का मान उन्नत करने तथा विद्या को विजातीय प्रभाव से मुक्त करने में सीबीसीएस प्रणाली बहुत सहायक सिद्ध हो सकती है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)


खबर साभार : दैनिक जागरण

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नई शिक्षा नीति से उम्मीदें : पूरे देश में एक समान पाठ्यक्रम नई शिक्षा नीति की सबसे बड़ी जरूरत Reviewed by Brijesh Shrivastava on 7:00 AM Rating: 5

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