स्कूल खुलने को हैं बुनियादी सुविधाओं का पता ही नहीं,फिर भी चाहिये शिक्षा में गुणवत्ता !
- ˜क्राई" संस्था के सव्रे में निकला निष्कर्ष |
- बीस प्रतिशत स्कूलों में शौचालय व पेयजल की व्यवस्था नहीं |
- 58 प्रतिशत स्कूलों में हेडमास्टर के लिए अलग कमरा नहीं।
- 18 प्रतिशत स्कूलों में मिड डे मील पकाने के लिए रसोईघर नहीं।
- 63 प्रतिशत स्कूलों में खेल का मैदान नहीं |
- 60 प्रतिशत में खेल का सामान ही नहीं।
- 74 प्रतिशत स्कूलों में पुस्तकालय ही नहीं |
- जबकि 84 में एक्टिविटी बुक का अभाव।
- 21 प्रतिशत स्कूलों के मिड डे मील वितरण में शिक्षक लगे हुए हैं, जो कानूनन गलत।
लखनऊ। शिक्षा के मौलिक अधिकार सुनिश्चित करने वाले ˜राइट टू एजूकेशन एक्ट-2009" के क्रियान्वयन के तीन वर्ष बाद भी उत्तर प्रदेश समेत ग्यारह प्रदेशों के स्कूलों में बुनियादी सुविधाओं की कमी है। कई स्कूलों की बिल्डिंग इतनी कमजोर है कि बच्चे कक्षाओं में बैठने से ही डरते हैं तो वहीं कईयों की चहारदीवारी ही नहीं है। यही नहीं, अधिकांश स्कूलों में पेयजल, शौचालय, बिजली, छात्र-शिक्षक अनुपात में कमी जैसी बुनियादी चीजें नदारद हैं। बाल अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था क्राई द्वारा कराये गये सव्रे "लर्निग ब्लॉक्स" के बारे में जानकारी देती हुई मुख्य कार्यकारी अधिकारी पूजा मारवाह ने कहा कि जब तक स्कूलों की इमारत सुरक्षित व चाहरदीवारी के साथ नहीं होंगी, हम तब तक बच्चों की बेहतर शिक्षा की उम्मीद नहीं कर सकते। उन्होंने कहा कि स्कूलों में बुनियादी ढांचे के अभाव के साथ ही पेयजल और लड़कियों के लिए अलग शौचालय जैसी सुविधाओं का न होना बच्चों को स्कूल से दूर करता है। सुश्री मारवाह ने कहा कि गुणवत्तायुक्त शिक्षा के अभाव की वजह से ही बाल श्रम को बढ़ावा मिलता है और अभिभावक अक्सर यह सोचकर अपने बच्चों को स्कूल भेजना महत्वपूर्ण नहीं समझते क्योंकि वे मानते हैं कि ऐसे खराब स्कूलों में पढ़ाने से कहीं बेहतर है कि वे अपने बच्चों के शुरुआती उम्र में कुछ कौशल या हुनर सिखा दें, जिससे वे अपनी जीविका चला सकें। सुश्री मारवाह ने कहा कि हालांकि मौलिक अधिकार के तौर पर प्राथमिक शिक्षा का अधिकार स्वागत योग्य है, लेकिन यह एक्ट स्वयं कुछ सीमाओं से जुड़ा हुआ है। उन्होंने कहा कि यह एक्ट दरअसल प्राथमिक शिक्षा के लिए निर्धारित मानकों के साथ व्यापक तौर पर दाखिले सुनिश्चित करने का प्रयास है। इसमें नामांकन या रजिस्ट्रेशन की जिम्मेदारी और हाजिरी के साथ-साथ बच्चों को तब तक स्कूल में बनाए रखने पर जोर दिया जाता है जब तक कि वे अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी न कर लें। ऐक्ट में 3 और छह वर्ष की उम्र के बीच के बच्चों को रखा गया है, जो उनकी जिन्दगी के बेहद निर्माणात्मक वर्ष हैं। सुश्री मारवाह ने कहा कि मेरा मानना है कि यह एक्ट बच्चों के लिए लर्निग परिणाम सुनिश्चित किये जाने पर अधिक जोर नहीं देता है, जो कि किसी भी शिक्षा पण्राली के लिए बेहद जरूरी है। उन्होंने कहा कि उन्होंने केन्द्र व प्रदेश सरकारों से मांग की है कि इस एक्ट को प्रभावी ढंग से क्रियान्वित करने के साथ ही इसकी खामियों को दूर किया जाय, जिससे शिक्षा का सार्थक अनुभव बच्चों को मिल सके।
˜क्राई" संस्था के सव्रे का निष्कर्ष :-
बीस प्रतिशत स्कूलों में शौचालय व पेयजल की व्यवस्था नहीं है। 58 प्रतिशत स्कूलों में हेडमास्टर के लिए अलग कमरा नहीं। 18 प्रतिशत स्कूलों में मिड डे मील पकाने के लिए रसोईघर नहीं। 63 प्रतिशत स्कूलों में खेल का मैदान नहीं, 60 प्रतिशत में खेल का सामान ही नहीं। 74 प्रतिशत स्कूलों में पुस्तकालय ही नहीं, जबकि 84 में एक्टिविटी बुक का अभाव। 21 प्रतिशत स्कूलों के मिड डे मील वितरण में शिक्षक लगे हुए हैं, जो कानूनन गलत।
इन प्रदेशों में हुआ सव्रे :-
आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु (साऊथ), बिहार, झारखण्ड, पश्चिम बंगाल, गुजरात, महाराष्ट्र (वेस्ट), मध्यप्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों के 71 जिलों और दिल्ली, कोलकाता, मुंबई जैसे महानगरों का भी अध्ययन कराया गया है। (साभार : राष्ट्रीय सहारा)
स्कूल खुलने को हैं बुनियादी सुविधाओं का पता ही नहीं,फिर भी चाहिये शिक्षा में गुणवत्ता !
Reviewed by Brijesh Shrivastava
on
10:08 AM
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