जब शिक्षक बनेंगे मुनीम तो प्राथमिक विद्यालयों में सन्नाटा बढ़ना ही है - नवभारत टाइम्स स्पेशल स्टोरी

प्रदेश के मुखिया अखिलेश यादव को इस बात का मलाल है कि सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले छात्र उनके व राहुल गांधी के बीच अन्तर नहीं कर पाते। मुख्यमंत्री का यह मलाल स्वाभाविक भी है कि जिस शिक्षा व्यवस्था पर सरकार हजारों करोड़ रूपया खर्च कर रही हो वहां के छात्रों का इतना सामान्य ज्ञान न हो कि वह अपने प्रदेश के मुख्यमंत्री का नाम जानें और पहचान सकें।

लेकिन मुख्यमंत्री जी को शायद यह नहीं मालूम कि बच्चों की बात तो दूर उनके कई शिक्षकों को भी यह सामान्य जानकारियां नहीं हैं। जरा सर्वेक्षण करा लीजिये, कई शिक्षक ऐसे होंगे जो अखिलेश यादव को देश का प्रधानमंत्री बता सकते हैं, राष्ट्रपति बता सकते हैं और कुछ ऐसे भी हो सकते हैं जो उन्हें गांव का मुखिया बना दें। बहुत से शिक्षकों को यह नहीं मालूम कि देश का प्रधानमंत्री कौन है और कैसे चुना जाता है। 

क्या इसके लिए सिर्फ शिक्षक ही दोषी हैं? बचपन में एक कहावत सुनी थी- लोभी गुरु, लालची चेला, होई नरक में ठेलम ठेला। प्रदेश के गुरु न तो लोभी है और न छात्र लालची। लेकिन सरकारी व्यवस्थाएं उसे यह बनने को विवश करती हैं। उत्तर प्रदेश के सरकारी प्राथमिक विद्यालय व व्यवस्था संसाधनों की दृष्टि में धनवान हैं, लेकिन बच्चों को शिक्षा देने में कंगाल।

अब मुख्यमंत्री जी ने यह मुद्दा उठा ही दिया है तो बहैसियत पत्रकार और इन्हीं विद्यालयों में अपने गुरु को सर्वस्व मान कर शिक्षा ग्रहण करने के कारण मैं अपना धर्म समझता हूं कि इस पर कुछ रोशनी डाली जाये। शहरों में तो अधिकांश बच्चे निजी विद्यालयों में जाते ही हैं, लेकिन अब गांव में भी यही बयार बह रही है। यही कारण है कि गांव-गांव निजी विद्यालयों की बाढ़ आ गई है। गांवों में विभिन्न स्कूलों की दौड़ती गाड़ियां, स्कूल ड्रेस में सजे बच्चे और उन बच्चों के सुन्दर भविष्य का सपना देखे अभिभावक हर जगह देखे जा सकते हैं। तब क्या यह विचार नहीं होना चाहिए कि विशालकाय सरकारी शैक्षिक संस्था से लोगों का भरोसा क्यों उठ रहा है। जबकि यह सरकार बच्चों को सरकारी स्कूलों में आकर्षित करने के लिए सब कुछ दे रही है।

शिक्षा का नया सत्र शुरू हो चुका है। लखनऊ के पास ही एक प्राइमरी स्कूल है। इस स्कूल के शिक्षक गुरु कम मुनीम ज्यादा लग रहे हैं। लेकिन कमोवेश यह हाल सभी बेसिक स्कूलों का है। शिक्षक सिर झुकाए जोड़ घटाव में लगे हैं। कितने बच्चें को ड्रेस मिली, कितनों को नहीं। कितने बच्चों को किताबें बांटी जा चुकी हैं। छात्रों को मिलने वाले वजीफे का जोड़ घटाव चल रहा है। सुबह स्कूलों में पढ़ाई शुरू नहीं होती कि यह सवाल पूछा जाने लगता है कितने बच्चों का मिड-डे-मील बनना है। सुबह से शाम तक शिक्षक इस बात के लिए परेशान हैं कि छात्रों की संख्या कैसे बढ़ाई जाए। इस प्रयास के लिए वह लोगों के घरों तक जा रहे हैं। सारा ध्यान रजिस्टर पर केन्द्रित है कि कैसे छात्रों की संख्या ज्यादा दिखाई जाए।

सर खुजलाते एक शिक्षक ने प्रधानाध्यापक से कहा- आप काहे परेशान हो रहे, संख्या हम पूरी करेंगे लड़कों की बाढ़ आएगी बाढ़। प्रधानाध्यापक ने शिक्षक को ध्यान से देखा और बोले- तुम भी विचित्र बात कर रहे हो, जो करतब तुम बता रहे हो वह तो मैं भी कर सकता हूं, लेकिन स्कूल में कुछ बच्चे भी तो होने चाहिए। जांच पड़ताल होती है, तो पट्टे खाली मिलते हैं। क्या जवाब दूंगा कि कहां गये बच्चे। क्या बता दूं कि ज्यादातर बच्चे निजी विद्यालयों में पढ़ते हैं। यहां तो सिर्फ नाम लिखा हुआ है। इस स्कूल से वजीफा पा रहे हैं, मुफ्त की किताबे ले रहे हैं, मुफ्त की ड्रेस पा रहे हैं।

बहुत से स्कूलों पर बच्चों की ड्रेस के पैसे की बेईमानी के भी आरोप लगते रहते हैं। किताबों में हेराफेरी होती है। मिड-डे-मिल के खाने वालों की गलत संख्या चढ़ाई जाती है। कुछ बच्चे ठीक उस समय आते हैं, जब मिड डे मिल पककर तैयार हो जाता है। एक जमाना था जब बैग में किताबें ही होती थीं, अब हर बच्चे के बैग में एक थाली भी मिलेगी। दोपहर को मिड-डे-मिल के बाद जिम्मेदार शिक्षक प्रधानाध्यापाक से यह तय तोड़ करने लगते हैं कि मिड-डे-मिल खाने वालों की बच्चों की संख्या कितनी भेज दें।

लखनऊ के ही इटौंजा के पास एक प्राइमरी स्कूल के शिक्षक बताते हैं कि यह उनकी विवशता है कि संख्या बढ़ा कर भेजें, वरना इस पर भी सवाल खड़े होते हैं। शिक्षक कदापि नहीं चाहते कि मिड-डे-मिल में हेराफेरी की जाए। लेकिन जब ज्यादा बच्चे दिखाये जायेंगे तो मिड डे मिल में हेराफेरी होगी ही। कुल मिलाकर यह योजना बच्चों के लिए कम बिचौलियों को ज्यादा हष्टपुष्ट कर रही है। 

पिछले दिनों अदालत का एक निर्णय आया था कि सारे अधिकारी व नेता अपने बच्चे को पास के सरकारी प्राइमरी स्कूल में भेजे। मन प्रसन्न हो गया, बचपन के दिन याद आ गये। जब स्कूलों में पट्टा बिछता था, शिक्षक जोर-जोर से बोलकर पहाड़ा रटाते थे। देश के प्रधानमंत्री का नाम बताया जाता था, राष्ट्रपति का नाम बताया जाता था। मास्टर साहब किसी बच्चे को खड़ा करके यह पूछ लेते थे कि बेटा प्रदेश के मुख्यमंत्री और राज्यपाल का नाम बताओ। बच्चे भी सतर्क रहते थे। क्या यह गौरव की बात नहीं है कि स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर अब तक देश चलाने वाले बड़े-बड़े नेता से अधिकारी तक इन्हीं प्राथमिक विद्यालयों से पढ़कर निकले। लेकिन अब सिफारिश और भ्रष्टाचार इस कदर हावी हुआ कि बहुत से ऐसे शिक्षक आ गये हैं, जिन्हें स्वयं जानकारी नहीं हैं तो फिर दूसरों को क्या जानकारी देंगे। बहुत से शिक्षामित्र नियमित शिक्षकों से कहीं ज्यादा काबिल हैं।

पिछले 50 वर्षों से एक नारा गूंजता रहा है- भेदभाव अब नहीं सहेंगे, कृष्ण-सुदामा साथ पढ़ेंगे। लेकिन शिक्षा व्यवस्था जिस राह पर जा रही है वहां पर यह नारा कभी भी अमली जामा नहीं पहन पाएगा। असल में गरीब से गरीब व्यक्ति की चाहत अपने बच्चों को निजी विद्यालयों में भेजने की है। ऐसे में जरूरी है कि इससे पहले प्राथमिक स्कूलों में बिल्कुल ही सन्नाटा छा जाए, इसका इलाज शुरू  किया जाए।

मुख्यमंत्री जी शिक्षक को पढ़ाने का मौका तो दीजिए। उसे पढ़ाने के अलावा सारे काम करने होते हैं। व्यवस्था तो तभी सुधर सकती है जब मुख्यमंत्री से लेकर गरीबों तक के बच्चे बेसिक विद्यालय में पढ़ें। शिक्षक तैयार हैं क्या अधिकारी भी तैयार होंगे। -दिनेश चन्द्र शर्मा, अध्यक्ष, बेसिक शिक्षक संघ, उत्तर प्रदेश


जब शिक्षक बनेंगे मुनीम तो प्राथमिक विद्यालयों में सन्नाटा बढ़ना ही है - नवभारत टाइम्स स्पेशल स्टोरी Reviewed by प्रवीण त्रिवेदी on 7:37 AM Rating: 5

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