26,379 स्कूल चल रहे एक कमरे में, नेता-अफसर के बच्चे पढ़ते तो क्या ऐसे ही रहते हालात, यूपी में प्राथमिक विद्यालयों की बदहाली की पोल खोलती रिपोर्ट




  • 26,379 स्कूल चल रहे एक कमरे में
  • नेता-अफसर के बच्चे पढ़ते तो क्या ऐसे ही रहते हालात
  • यूपी में प्राथमिक विद्यालयों की बदहाली की पोल खोलती रिपोर्ट
  • मुफ्त भोजन, किताबों व यूनीफॉर्म के बावजूद खोते जा रहे अपनी जमीन
  • बदहाल परिषदीय स्कूल, बच्चों के सीखने-समझने का स्तर भी गिरा

राज्य ब्यूरो, लखनऊ : सरकारी स्कूलों की बदहाली को लेकर हाई कोर्ट की चिंता अकारण नहीं है। मिड-डे मील, नि:श्शुल्क पाठ्यपुस्तकें व यूनीफॉर्म और अब मुफ्त स्कूल बैग। परिषदीय स्कूलों की ओर बच्चों को आकर्षित करने के इन सभी सरकारी जतन के बावजूद गांव-गांव, गली-मुहल्ले खुले यह विद्यालय निजी स्कूलों को अपनी जमीन खोते जा रहे हैं। सर्व शिक्षा अभियान के तहत लगभग डेढ़ दशक में अरबों रुपये फूंकने के बावजूद परिषदीय/सरकारी स्कूलों की शिक्षा व्यवस्था पिटती नजर आ रही है।

निजी स्कूलों से पिछड़ रहे : परिषदीय विद्यालयों की तुलना में निजी स्कूलों में बच्चों के नामांकन का ग्राफ लगातार बढ़ता जा रहा है। सूबे के 69 जिलों में किये गए सर्वेक्षण के आधार पर तैयार की गई एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन (असर) रिपोर्ट, 2014 बताती है कि 2006 में उत्तर प्रदेश के निजी स्कूलों में छह से 14 आयु वर्ग के 30.3 प्रतिशत बच्चे नामांकित थे, वहीं 2014 में यह आंकड़ा बढ़कर 51.7 फीसद हो गया है। इसके सापेक्ष परिषदीय स्कूलों में इस आयु वर्ग के 41.1 प्रतिशत बच्चे ही नामांकित पाये गए। परिषदीय स्कूलों में गणित और अंग्रेजी विषयों की पढ़ाई पर जोर देने की मुहिम भी बेदम साबित हुई है। रिपोर्ट के मुताबिक 2014 में सरकारी स्कूलों में कक्षा तीन के महज 6.6 प्रतिशत बच्चे गणित में घटाव के सवाल हर करने में सक्षम पाये गए जबकि निजी स्कूलों में यह आंकड़ा 38.5 फीसद था।

निजी विद्यालयों में पांचवीं कक्षा के 38.7 फीसद बच्चे भाग के सवाल हल करने में समर्थ मिले जबकि सरकारी स्कूलों में यह काबिलियत सिर्फ 12.1 प्रतिशत बच्चों में पायी गई।1शिक्षकों का अकाल : वर्ष 2001-02 से लेकर अब तक सर्व शिक्षा अभियान के तहत 26500 नये प्राथमिक और 29000 उच्च प्राथमिक स्कूल बनाये जा चुके हैं, लेकिन शिक्षकों की भर्ती को लेकर बेसिक शिक्षा विभाग सुस्त रहा। लिहाजा वर्षो तक परिषदीय स्कूल शिक्षकों का अकाल ङोलते रहे। स्थिति की गंभीरता का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि 2014 में 32 हजार से अधिक परिषदीय प्राथमिक स्कूलों में एक ही शिक्षक शिक्षा का बोझ उठाने को मजबूर था।

वहीं लगभग दस हजार उच्च प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षा की गाड़ी खींचने की जिम्मेदारी इकलौते अध्यापक पर थी। हाल ही में 59424 प्रशिक्षु शिक्षकों की भर्ती और 1.37 लाख शिक्षामित्रों के समायोजन से स्थिति में कुछ सुधार आया है, लेकिन बड़ी संख्या में शिक्षकों के पद अब भी खाली हैं।

साढ़े चार हजार स्कूलों में पेयजल सुविधा नहीं
यह विडंबना ही है कि साढ़े चार हजार से ज्यादा स्कूलों में पेयजल की व्यवस्था नहीं है। इनमें हैंडपंप लगाने के लिए जुलाई में धनराशि जारी की गई है। पिछले साल सर्व शिक्षा अभियान के राज्य परियोजना कार्यालय ने समीक्षा की तो पाया गया कि सात हजार से अधिक परिषदीय विद्यालय बालक और बालिका शौचालयविहीन हैं। 1वहीं परिषदीय स्कूलों में पहले से बने लगभग 25 हजार शौचालय निष्क्रिय पाये गए। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट के सख्त रुख को देखते हुए शौचालयों का निर्माण तेजी से कराया गया। बेसिक शिक्षा विभाग का दावा है कि अब सभी परिषदीय विद्यालयों में शौचालय का निर्माण पूरा हो गया है।


साभार : जागरण 

लखनऊ। हाईकोर्ट ने जनप्रतिनिधियों, अफसरों और जजों के बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाने के आदेश दिए हैं। पर, क्या माननीयों और अफसरों के बच्चे इन ‘मजबूरी के स्कूलों’में पढ़ेंगे? सरकारी स्कूलों पर ‘मजबूरी के स्कूल’ का टैग यूं ही नहीं लगा। स्कोर संस्था की एक सर्वे रिपोर्ट में सामने आया था कि सूबे में 26,379 सरकारी स्कूल ऐसे हैं जो एक कमरे में सिमटे हैं। यह आंकड़ा कुल सरकारी स्कूलों का 11 फीसदी है। 10 फीसदी स्कूल दो कमरों तो 10 फीसदी तीन कमरों में चलते हैं।

 इन स्कूलों में पढ़ाई की क्वालिटी की बात करें तो एक अन्य संस्था ‘असर’ की पिछले साल की सर्वे रिपोर्ट बताती है कि 67 फीसदी कक्षा चार के बच्चे कक्षा दो के हिंदी का पाठ भी नहीं पढ़ पाए। अंग्रेजी, गणित की तो बात ही छोड़िए। ‘मजबूरी के स्कूलों’ में क्या हालात हैं, सर्वे में क्या सामने आया था, पेश है रिपोर्ट....

सिर्फ 9 फीसदी प्राथमिक स्कूलों में पांच से ज्यादा कमरे ः सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक सिर्फ 23 फीसदी सरकारी प्राथमिक स्कूल ऐसे हैं जहां पांचवीं तक की पढ़ाई के लिए पांच कक्षाएं हैं। केवल नौ फीसदी स्कूल ऐसे हैं जहां पांच से अधिक कक्षाएं हैं। वहीं 13 प्रतिशत स्कूल ऐसे हैं जहां चार कक्षाएं हैं। 
21 फीसदी शिक्षक तो पढ़ाने ही नहीं आते ः सर्वे के दौरान सामने आया कि 21 फीसदी शिक्षक कक्षा में पढ़ाने ही नहीं पहुंच रहे। यही नहीं 6.8 फीसदी शिक्षकों की जगह कोई दूसरा ड्यूटी करते मिला। शिक्षकों का अनुपात (प्राइमरी 30:1 और अपर प्राइमरी 35:1) भी पूरा नहीं मिला। 39 फीसदी प्राइमरी स्कूलों में समस्या का हल निकालने के लिए कोई व्यवस्था ही नहीं मिली। यानी इन स्कूलों में एडमिशन न मिलने, शिक्षक के गैरहाजिर रहनेे, शौचालय नहीं होने जैसी शिकायतों पर कोई सुनवाई की व्यवस्था ही नहीं है।
  • न हिंदी पढ़ पा रहे न अंग्रेजी
पढ़ाई की गुणवत्ता सरकारी स्कूलों में खासतौर पर ग्रामीण इलाकों में क्या है, उस पर ‘असर’ संस्था की वर्ष 2014 की सर्वे रिपोर्ट बेहद भयावह तस्वीर पेश करती है। तीसरी कक्षा में पढ़ने वाले 91.2 प्रतिशत बच्चे अंग्रेजी का एक वाक्य भी नहीं पढ़ पाते। पांचवीं कक्षा के विद्यार्थियों का भी ऐसा ही हाल रहा। महज 21.1 प्रतिशत बच्चे ही पूरा वाक्य पढ़ पाए वह भी जो बेहद सरल था। कक्षा चार के 67 प्रतिशत बच्चे दूसरी कक्षा का हिंदी का पाठ भी नहीं पढ़ पाए। पांचवीं कक्षा के 44.7 प्रतिशत बच्चे दूसरी कक्षा की किताब नहीं पढ़ पाए।
  • सवाल हल करना तो दूर, अंक भी नहीं पहचानते
रिपोर्ट बताती है कि पांचवीं कक्षा के 75 फीसदी बच्चे भाग और 69 फीसदी घटाना के सवाल नहीं कर पाए। 5.6 फीसदी बच्चे तो ऐसे मिले जोकि 0-9 तक के अंकों की भी सही से पहचान नहीं कर पाए। 26.6 फीसदी ही ऐसे बच्चे थे जो कि 100 तक के अंकों की पहचान कर सकते थे। पर, लिखने की बारी आई तो 73.4 फीसदी 99 तक की संख्या भी नहीं लिख पाए। रिपोर्ट बताती है कि पिछले सालों की तुलना में भी पढ़ाई की गुणवत्ता में कोई खास बदलाव नहीं हुआ।
  • कक्षाएं नहीं तो ‘गोल’ में पढ़ते हैं बच्चे
कक्षाओं की कमी का असर यह है कि बच्चे अपने से जूनियर या सीनियर की क्लास में बैठकर पढ़ रहे हैं। यानी एक ‘गोल’ बन जाते है। सर्वे के दौरान पाया गया कि 63.7 फीसदी स्कूलों में दूसरी कक्षा के बच्चों को अपने से नीचे या ऊपर के स्तर की कक्षा में बिठाया गया था। वहीं चौथी कक्षा के बच्चों का यह आंकड़ा 60.8 फीसदी था। इन बच्चों को अपने साथ के बच्चों की जगह दूसरी कक्षा में बिठाकर पढ़ाया जा रहा था।
... और गुणवत्ता ऐसी!

  • तीसरी कक्षा के बच्चे अंग्रेजी का एक वाक्य भी नहीं पढ़ पाते
  • पांचवीं कक्षा के बच्चे भाग के सवाल हल नहीं कर पाते
  • पांचवीं कक्षा के बच्चे घटाना भी नहीं जानते
  • चौथी कक्षा के बच्चे दूसरी कक्षा का हिंदी का पाठ भी नहीं पढ़ पाते
यह तस्वीर लखनऊ के अमीनाबाद के सरकारी प्राइमरी स्कूल की है। स्कूल के मुख्य गेट के सामने ही कूड़े का अंबार लगा है। बदबू इतनी कि गुजरना तक मुश्किल। पर, इन्हीं राहों से बच्चे स्कूल जाते हैं। उनकी आंखों में उभरी पीड़ा सवाल करती है कि अगर नेताओं-अफसरों के बच्चे यहां पढ़ते तो क्या तब भी हमें देश का भविष्य बनने के लिए इन्हीं राहों से गुजरना पड़ता...?

खबर साभार : अमर उजाला

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26,379 स्कूल चल रहे एक कमरे में, नेता-अफसर के बच्चे पढ़ते तो क्या ऐसे ही रहते हालात, यूपी में प्राथमिक विद्यालयों की बदहाली की पोल खोलती रिपोर्ट Reviewed by प्रवीण त्रिवेदी on 7:23 AM Rating: 5

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