जब प्राइवेट स्कूल बन चुके हो मुनाफे का व्यापार, जिसमें नेताओं और अधिकारियों की सीधी हिस्सेदारी हो तो क्यों न हो स्कूलों का राष्ट्रीयकरण?
क्यों न हो स्कूलों का राष्ट्रीयकरण?
फरवरी-मार्च आते ही देश के लगभग सभी बड़े शहरों में नर्सरी स्कूलों में एडमिशन को लेकर बवाल हो जाते हैं। कहीं फार्म की मनमानी कीमतों को लेकर असंतुष्टि रहती है तो कोई सरकार द्वारा तय मानदंडों का पालन न होने से रूष्ट। हालात इतने बद्तर हैं कि तीन साल के बच्चे को स्कूल में दाखिल करवाना आईआईटी की फीस से भी महंगा हो गया है। माहौल ऐसा हो गया है कि बच्चों के मन में स्कूल या शिक्षक के प्रति कोई श्रद्धा नहीं रह गई है। वहीं स्कूल वालों की बच्चों के प्रति न तो संवेदना रह गई है और न ही सहानुभूति। ऐसा अविश्वास का माहौल बन गया है, जो बच्चे का जिंदगी भर साथ नहीं छोड़ेगा।
शिक्षा का व्यापारीकरण कितना खतरनाक होगा, इसका अभी किसी को अंदाजा नहीं है। लेकिन मौजूदा पीढ़ी जब संवेदनहीन होकर अपने ज्ञान को महज पैसा बनाने की मशीन बनाकर इस्तेमाल करना शुरू करेगी, तब समाज और सरकार को इस भूल का एहसास होगा। दिल्ली में तो कई पालक अपने बच्चे का दाखिला करवाने के लिए फर्जी आय प्रमाण पत्र बनवाने से भी नहीं चूके और ऐसे कई लेाग जेल में हैं व बच्चे स्कूल से बाहर सड़क पर।
कहा जाता है कि उन दिनों ज्ञानार्जन का अधिकार केवल उच्च वर्ग के लोगों के पास हुआ करता था। इस ‘तथाकथित’ मनुवाद को कोसने का इन दिनों कुछ फैशन-सा चला है, या यों कहें कि इसे सियासत की सहज राह कहा जा रहा है। लेकिन आज की खुले बाजार वाली मुक्त अर्थव्यवस्था से जिस नए ‘मनीवाद’ का जन्म हो रहा है, उस पर चहुंओर चुप्पी है। लक्ष्मी साथ है तो सरस्वती के द्वार आपके लिए खुले हैं, अन्यथा सरकार और समाज दोनों की नजर में आपका अस्तित्व शून्य है। इस नए ‘मनुवाद’, जो मूल रूप से ‘मनी वाद’ है, का सर्वाधिक शिकार प्राथमिक शिक्षा ही रही है।
यह सर्वविदित है कि प्राथमिक शिक्षा किसी बच्चे के भविष्य की बुनियाद है। हमरे देश में प्राथमिक स्तर पर ही शिक्षा लोगों का स्तर तय कर रही है। एक तरफ कंप्यूटर, एसी, खिलौनों से सज्जित स्कूल हैं तो दूसरी ओर ब्लैक बोर्ड, शौचालय जैसी मूलभूत जरूरत को तरसते बच्चे। देश की राजधानी दिल्ली सहित बड़े शहरों में में दो-ढाई साल के बच्चों का कतिपय नामीगिरामी प्री-स्कूल प्रवेश चुनाव लड़ने के बराबर कठिन माना जाता हैं। यदि जुगाड़ लगा कर कोई मध्यम वर्ग का बच्चा इन बड़े स्कूलों में पहुंच भी जाए तो वहां के ढकोसले-चोंचले झेलना उसके बूते के बाहर होता है। ठीक यही हालात देश के अन्य महानगरों के भी हैं।
बच्चे के जन्मदिन पर स्कूल के सभी बच्चों में कुछ वितरित करना या ‘ट्रीट’ देना, सालाना जलसों के लिए स्पेशल ड्रेस बनवाना, सालभर में एक-दो पिकनिक या टूर ये ऐसे व्यय हैं, जिन पर हजारों का खर्च यूं ही हो जाता है। फिर स्कूल की किताबें, वर्दी, जूते, वो भी स्कूल द्वारा तयशुदा दुकानों से खरीदने पर स्कूल संचालकों के वारे-न्यारे होते रहते हैं। इन दिनों राजधानी और एनसीआर में दो हजार से अधिक पब्लिक स्कूल चल रहे हैं, जिनमें लगभग 40 लाख बच्चे पढ़ते हैं।
18 साल पहले दिल्ली सरकार ने फीस बढ़ोतरी के मुद्दे पर मानव संसाधन विकास मंत्रालय से अवकाश प्राप्त सचिव जेवी राघवन की अध्यक्षता में नौ सदस्यों की एक कमेटी गठित की थी। इस समिति ने दिल्ली स्कूल एक्ट 1973 में संशोधन की सिफारिश की थी। समिति का सुझाव था कि पब्लिक स्कूलों को बगैर लाभ-हानि के संचालित किया जाना चाहिए। कमेटी ने पाया था कि कई स्कूल प्रबंधन, छात्रों से उगाही फीस का इस्तेमाल अपने दूसरे व्यवसायों में कर रहे हैं। वीरा राघवन कमेटी ने ऐसे स्कूलों के प्रबंधन के खिलाफ कड़ी कार्यवाही की अनुशंसा भी की थी। कमेटी ने सुझाव दिया था कि छात्रों से वसूले धन का इस्तेमाल केवल छात्रों और शिक्षकों की बेहतरी पर ही किया जाए। राघवन साहब की सिफारिशें तो 18 सालों में कभी मूर्त रूप ले नहीं पाईं, फिर छह साल पहले बंसल कमेटी ने भी ऐसे ही सुझाव दे डाले।
इन दोनों कमेटियों की रिपोर्ट बानगी हैं कि स्कूली शिक्षा अब एक नियोजित ध्ंाधा बन चुका है। बड़े पूंजीपति, औद्योगिक घराने, माफिया, राजनेता अपने काले धन को सफेद करने के लिए स्कूल खोल रहे हैं। वहां किताबों, वर्दी की खरीद, मौज-मस्ती की पिकनिक या हॉबी क्लास, सभी मुनाफे का व्यापार बन चुका है। इसके बावजूद इन अनियमितताओं की अनदेखी केवल इसीलिए है क्योंकि ऐसे स्कूलों में नेताओं की सीधी साझेदारी है। तिस पर सरकार शिक्षा को मूलभूत अधिकर देने का प्रस्ताव सदन में पारित कर चुकी है। घूम-फिर कर बात एक बार फिर विद्यालयों के दुकानीकरण पर आ जाती है।
शिक्षा का सरकारी सिस्टम जैसे जाम हो गया है। निर्धारित पाठ्यक्रम की पुस्तकें मांग के अनुसार उपलब्ध कराने में एनसीईआरटी सरीखी सरकारी संस्थाएं बुरी तरह फेल रही हैं। जबकि प्राइवेट या पब्लिक स्कूल अपनी मनमानी किताबें छपवा कर कोर्स में लगा रहे हैं। यह पूरा धंधा इतना मुनाफे वाला बन गया है कि अब छोटे-छोटे गांवों में भी पब्लिक या कानवेंट स्कूल कुकुरमुत्तों की तरह उग रहे हैं। कच्ची झोपड़ियों, गंदगी के बीच, बगैर माकूल बैठक व्यवस्था के कुछ बेरोजगार एक बोर्ड लटका कर प्राइमरी स्कूल खोल लेते हैं। इन ग्रामीण स्कूलों के छात्र पहले तो वे होते हैं, जिनके पालक पैसे वाले होते हैं और अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में भेजना हेठी समझते हैं। फिर कुछ ऐसे अभिभावक, जो खुद तो अनपढ़ होते हैं लेकिन अपने बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाने की महत्वाकांक्षा पाले होते हैं, अपना पेट काट कर ऐसे पब्लिक स्कूलों में अपने बच्चों को भेजने लगते हैं। कुल मिलाकर दोष जर्जर सरकारी शिक्षा व्यवस्था के सिर पर जाता है। जो आम आदमी का विश्वास पूरी तरह खो चुकी हंै।
अपने बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए पालक मजबूरीवश इन शिक्षा की दुकानों पर खुद लुटने को पहुंच जाते हैं। लोग भूल चुके हैं कि दसवीं पंचवर्षीय योजना के समापन तक यानी सन् 2007 तक शत-प्रतिशत बच्चों को प्राथमिक शिक्षा का सपना बुना गया था, जिसे ध्वस्त हुए छह साल बीत चुके हैं। वैसे स्कूलरूपी दुकानों का रोग कोई दो दशक पहले महानगरों से ही शुरू हुआ था, जो अब शहरों, कस्बों से संक्रमित होता हुआ अब दूरस्थ गांवों तक पहुंच गया है।
समाजवाद की अवधारणा पर सीधा कुठाराघात करने वाली यह शिक्षा प्रणाली शुरुआत से ही उच्च और निम्न वर्ग तैयार कर रही है, जिसमें समर्थ लोग और समर्थ होते हैं, जबकि विपन्न लोगों का गर्त में जाना जारी रहता है। विश्व बैंक की एक रपट कहती है कि भारत में छह से 10 साल के कोई तीन करोड़ बीस लाख बच्चे स्कूल नहीं जा पा रहे हैं। रपट में यह भी कहा गया है कि भारत में शिक्षा को ले कर बच्चों-बच्चों में खासा भेदभाव है। लड़कों-लड़कियों, गरीब-अमीर और जातिगत आधार पर बच्चों के लिए पढ़ाई के मायने अलग-अलग हैं। रपट के अनुसार 10 वर्ष तक के सभी बच्चों को स्कूल भेजने के लिए 13 लाख स्कूली कमरे बनवाने होंगे और 740 हजार नए शिक्षकों की जरूरत होगी।
सरकार के पास खूब बजट है और उसे निगलने वाले कागजी शेर भी। लेकिन मूल समस्या स्कूली शिक्षा में असमानता की है। प्राथमिक स्तर की शिक्षण संस्थाओं की संख्या बढ़ना कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन ‘देश के भविष्य’ की नैतिक शिक्षा का पहला आदर्श शिक्षक जब बामुश्किल हजार-डेढ़ हजार रुपए का भुगतान पा रहा हो तो उससे किस स्तर के ज्ञान की उम्मीद की जा सकती है। जब पहली कक्षा के ऐसे बच्चे को, जिसे अक्षर ज्ञान भी बामुश्किल है, उसे कंप्यूटर की ट्रेनिंग दी जाने लगे, महज इसलिए कि पालकों से इसके नाम पर अधिक फीस घसीटी जा सकती है, तो किस तरह तकनीकी शिक्षा प्रसार की बात सोची जा सकती है?
प्राइवेट स्कूलों की आय की जांच, फीस पर सरकारी नियंत्रण, पाठ्यक्रम, पुस्तकों आदि का एकरूपीकरण, सरकारी स्कूलों को सुविधा संपन्न बनाना, आला सरकारी अफसरों और जनप्रतिनिधियों के बच्चों की सरकारी स्कूलों में शिक्षा की अनिवार्यता, निजी संस्था के शिक्षकों के सुरक्षित वेतन की सुनिश्चित व्यवस्था सरीखे सुझाव समय-समय पर आते रहे और लाल बस्तों में बंध कर गुम होते रहे हैं।
अतुल्य भारत के सपने को साकार करने की प्राथमिक जरूरत स्तरीय प्राथमिक शिक्षा का लक्ष्य पाने का केवल एकमात्र तरीका है- स्कूली शिक्षा का राष्ट्रीयकरण। अपने दो या तीन वर्ग किलोमीटर के दायरे में आने वाले स्कूल में प्रवेश पाना सभी बच्चों का हक हो, सभी स्कूलों की सुविधाएं, पुस्तकें, फीस एकसमान हो, मिड डे मील सभी को एक जैसा मिले अैार कक्षा आठ तक के सभी स्कूलों में शिक्षा का माध्यम मातृ-भाषा हो। ऐसे में इलाहबाद हाई कोर्ट के उस आदेश का स्वत: पालन हो जाएगा, जिसमें अफसर, नेताओं के बच्चे की सरकारी स्कूलों में अनिवार्य शिक्षा का आदेश है। फिर न तो भगवा या लाल किताबों का विवाद होगा और न ही मदरसों की दुर्दशा पर चिंता। यह सब करने में खर्चा भी अधिक नहीं है, बस जरूरत होगी तो इच्छा शक्ति की। शायद यह चुनाव इसका मार्ग प्रशस्त करे, बस जरूरत है कि सड़कों पर प्रदर्शन करने के बनिस्पत अभिभावक राष्ट्रीय पार्टियों के नेताओं की इस दिशा में जवाबदारी तय करें।
बच्चे के जन्मदिन पर स्कूल के सभी बच्चों में कुछ वितरित करना या ‘ट्रीट’ देना, सालाना जलसों के लिए स्पेशल ड्रेस बनवाना, सालभर में एक-दो पिकनिक या टूर ये ऐसे व्यय हैं, जिन पर हजारों का खर्च यूं ही हो जाता है। फिर स्कूल की किताबें, वर्दी, जूते, वो भी स्कूल द्वारा तयशुदा दुकानों से खरीदने पर स्कूल संचालकों के वारे-न्यारे होते रहते हैं। इन दिनों राजधानी और एनसीआर में दो हजार से अधिक पब्लिक स्कूल चल रहे हैं, जिनमें लगभग 40 लाख बच्चे पढ़ते हैं।
18 साल पहले दिल्ली सरकार ने फीस बढ़ोतरी के मुद्दे पर मानव संसाधन विकास मंत्रालय से अवकाश प्राप्त सचिव जेवी राघवन की अध्यक्षता में नौ सदस्यों की एक कमेटी गठित की थी। इस समिति ने दिल्ली स्कूल एक्ट 1973 में संशोधन की सिफारिश की थी। समिति का सुझाव था कि पब्लिक स्कूलों को बगैर लाभ-हानि के संचालित किया जाना चाहिए। कमेटी ने पाया था कि कई स्कूल प्रबंधन, छात्रों से उगाही फीस का इस्तेमाल अपने दूसरे व्यवसायों में कर रहे हैं। वीरा राघवन कमेटी ने ऐसे स्कूलों के प्रबंधन के खिलाफ कड़ी कार्यवाही की अनुशंसा भी की थी। कमेटी ने सुझाव दिया था कि छात्रों से वसूले धन का इस्तेमाल केवल छात्रों और शिक्षकों की बेहतरी पर ही किया जाए। राघवन साहब की सिफारिशें तो 18 सालों में कभी मूर्त रूप ले नहीं पाईं, फिर छह साल पहले बंसल कमेटी ने भी ऐसे ही सुझाव दे डाले।
इन दोनों कमेटियों की रिपोर्ट बानगी हैं कि स्कूली शिक्षा अब एक नियोजित ध्ंाधा बन चुका है। बड़े पूंजीपति, औद्योगिक घराने, माफिया, राजनेता अपने काले धन को सफेद करने के लिए स्कूल खोल रहे हैं। वहां किताबों, वर्दी की खरीद, मौज-मस्ती की पिकनिक या हॉबी क्लास, सभी मुनाफे का व्यापार बन चुका है। इसके बावजूद इन अनियमितताओं की अनदेखी केवल इसीलिए है क्योंकि ऐसे स्कूलों में नेताओं की सीधी साझेदारी है। तिस पर सरकार शिक्षा को मूलभूत अधिकर देने का प्रस्ताव सदन में पारित कर चुकी है। घूम-फिर कर बात एक बार फिर विद्यालयों के दुकानीकरण पर आ जाती है।
शिक्षा का सरकारी सिस्टम जैसे जाम हो गया है। निर्धारित पाठ्यक्रम की पुस्तकें मांग के अनुसार उपलब्ध कराने में एनसीईआरटी सरीखी सरकारी संस्थाएं बुरी तरह फेल रही हैं। जबकि प्राइवेट या पब्लिक स्कूल अपनी मनमानी किताबें छपवा कर कोर्स में लगा रहे हैं। यह पूरा धंधा इतना मुनाफे वाला बन गया है कि अब छोटे-छोटे गांवों में भी पब्लिक या कानवेंट स्कूल कुकुरमुत्तों की तरह उग रहे हैं। कच्ची झोपड़ियों, गंदगी के बीच, बगैर माकूल बैठक व्यवस्था के कुछ बेरोजगार एक बोर्ड लटका कर प्राइमरी स्कूल खोल लेते हैं। इन ग्रामीण स्कूलों के छात्र पहले तो वे होते हैं, जिनके पालक पैसे वाले होते हैं और अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में भेजना हेठी समझते हैं। फिर कुछ ऐसे अभिभावक, जो खुद तो अनपढ़ होते हैं लेकिन अपने बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाने की महत्वाकांक्षा पाले होते हैं, अपना पेट काट कर ऐसे पब्लिक स्कूलों में अपने बच्चों को भेजने लगते हैं। कुल मिलाकर दोष जर्जर सरकारी शिक्षा व्यवस्था के सिर पर जाता है। जो आम आदमी का विश्वास पूरी तरह खो चुकी हंै।
अपने बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए पालक मजबूरीवश इन शिक्षा की दुकानों पर खुद लुटने को पहुंच जाते हैं। लोग भूल चुके हैं कि दसवीं पंचवर्षीय योजना के समापन तक यानी सन् 2007 तक शत-प्रतिशत बच्चों को प्राथमिक शिक्षा का सपना बुना गया था, जिसे ध्वस्त हुए छह साल बीत चुके हैं। वैसे स्कूलरूपी दुकानों का रोग कोई दो दशक पहले महानगरों से ही शुरू हुआ था, जो अब शहरों, कस्बों से संक्रमित होता हुआ अब दूरस्थ गांवों तक पहुंच गया है।
समाजवाद की अवधारणा पर सीधा कुठाराघात करने वाली यह शिक्षा प्रणाली शुरुआत से ही उच्च और निम्न वर्ग तैयार कर रही है, जिसमें समर्थ लोग और समर्थ होते हैं, जबकि विपन्न लोगों का गर्त में जाना जारी रहता है। विश्व बैंक की एक रपट कहती है कि भारत में छह से 10 साल के कोई तीन करोड़ बीस लाख बच्चे स्कूल नहीं जा पा रहे हैं। रपट में यह भी कहा गया है कि भारत में शिक्षा को ले कर बच्चों-बच्चों में खासा भेदभाव है। लड़कों-लड़कियों, गरीब-अमीर और जातिगत आधार पर बच्चों के लिए पढ़ाई के मायने अलग-अलग हैं। रपट के अनुसार 10 वर्ष तक के सभी बच्चों को स्कूल भेजने के लिए 13 लाख स्कूली कमरे बनवाने होंगे और 740 हजार नए शिक्षकों की जरूरत होगी।
सरकार के पास खूब बजट है और उसे निगलने वाले कागजी शेर भी। लेकिन मूल समस्या स्कूली शिक्षा में असमानता की है। प्राथमिक स्तर की शिक्षण संस्थाओं की संख्या बढ़ना कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन ‘देश के भविष्य’ की नैतिक शिक्षा का पहला आदर्श शिक्षक जब बामुश्किल हजार-डेढ़ हजार रुपए का भुगतान पा रहा हो तो उससे किस स्तर के ज्ञान की उम्मीद की जा सकती है। जब पहली कक्षा के ऐसे बच्चे को, जिसे अक्षर ज्ञान भी बामुश्किल है, उसे कंप्यूटर की ट्रेनिंग दी जाने लगे, महज इसलिए कि पालकों से इसके नाम पर अधिक फीस घसीटी जा सकती है, तो किस तरह तकनीकी शिक्षा प्रसार की बात सोची जा सकती है?
प्राइवेट स्कूलों की आय की जांच, फीस पर सरकारी नियंत्रण, पाठ्यक्रम, पुस्तकों आदि का एकरूपीकरण, सरकारी स्कूलों को सुविधा संपन्न बनाना, आला सरकारी अफसरों और जनप्रतिनिधियों के बच्चों की सरकारी स्कूलों में शिक्षा की अनिवार्यता, निजी संस्था के शिक्षकों के सुरक्षित वेतन की सुनिश्चित व्यवस्था सरीखे सुझाव समय-समय पर आते रहे और लाल बस्तों में बंध कर गुम होते रहे हैं।
अतुल्य भारत के सपने को साकार करने की प्राथमिक जरूरत स्तरीय प्राथमिक शिक्षा का लक्ष्य पाने का केवल एकमात्र तरीका है- स्कूली शिक्षा का राष्ट्रीयकरण। अपने दो या तीन वर्ग किलोमीटर के दायरे में आने वाले स्कूल में प्रवेश पाना सभी बच्चों का हक हो, सभी स्कूलों की सुविधाएं, पुस्तकें, फीस एकसमान हो, मिड डे मील सभी को एक जैसा मिले अैार कक्षा आठ तक के सभी स्कूलों में शिक्षा का माध्यम मातृ-भाषा हो। ऐसे में इलाहबाद हाई कोर्ट के उस आदेश का स्वत: पालन हो जाएगा, जिसमें अफसर, नेताओं के बच्चे की सरकारी स्कूलों में अनिवार्य शिक्षा का आदेश है। फिर न तो भगवा या लाल किताबों का विवाद होगा और न ही मदरसों की दुर्दशा पर चिंता। यह सब करने में खर्चा भी अधिक नहीं है, बस जरूरत होगी तो इच्छा शक्ति की। शायद यह चुनाव इसका मार्ग प्रशस्त करे, बस जरूरत है कि सड़कों पर प्रदर्शन करने के बनिस्पत अभिभावक राष्ट्रीय पार्टियों के नेताओं की इस दिशा में जवाबदारी तय करें।
~ पंकज चतुर्वेदी,
(लेखक नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया के सहायक संपादक हैं)
(लेखक नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया के सहायक संपादक हैं)
खबर साभार : डेली न्यूज एक्टिविस्ट
जब प्राइवेट स्कूल बन चुके हो मुनाफे का व्यापार, जिसमें नेताओं और अधिकारियों की सीधी हिस्सेदारी हो तो क्यों न हो स्कूलों का राष्ट्रीयकरण?
Reviewed by प्रवीण त्रिवेदी
on
8:29 AM
Rating:
No comments:
Post a Comment