अमीरों को शिक्षा, गरीबों को सिर्फ भिक्षा : मिड-डे-मील और मुफ्त ड्रेस के लालच पर नहीं चल सकते सरकारी स्कूल
- अमीरों को शिक्षा, गरीबों को सिर्फ भिक्षा, जगजाहिर है सरकारी स्कूलों की असलियत
- मिड-डे-मील और मुफ्त ड्रेस के लालच पर नहीं चल सकते सरकारी स्कूल
इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह निर्णय कि सभी आईएएस, आईपीएस, सांसदों, विधायकों के बच्चे सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में दाखिला लें, ऐतिहासिक है। इसने उस तंत्र को हिला कर रख दिया है, जिसके अलमबरदार अपने बच्चों को नामी-गिरामी प्राइवेट स्कूलों में भेज कर सरकारी विद्यालयों को उनकी बदहाली पर चिढ़ा रहे हैं। लगभग चार दशकों से एक नारा शिक्षकों के सभा-सम्मेलनों में गूंजता रहा है- भेदभाव अब नहीं सहेंगे, कृष्ण-सुदामा साथ पढ़ेंगे। अब अदालत ने कृष्ण और सुदामा को साथ पढ़ने का आदेश भी दे दिया है। लेकिन इस मामले पर याचिका दाखिल करने वाले शिक्षक को बर्खास्त कर सरकार ने अपना रुख दिखा दिया है कि वह इस आदेश को आसानी से नहीं मानने वाली। असल बात यह है कि निजी विद्यालय इस समाज का स्टेटस सिंबल बन चुके हैं, जो यह साबित करते हैं कि किसकी क्या हैसियत है।
- कैसे बदले हालात?
लेकिन क्या चमकते निजी विद्यालयों और उजड़ते सरकारी स्कूलों की कथा अनायास शुरू हुई? यह समझना जरूरी है कि कैसे बच्चों को स्कूल लाने के नाम पर चलाई गई योजनाओं ने सरकारी विद्यालयों को बर्बाद किया। इन विद्यालयों की बर्बादी निजी विद्यालयों के लिए वरदान बन गई। सरकारी विद्यालयों की हालत इतनी खराब है कि स्कूलों को जीवित रखने के लिए बच्चों के फर्जी एडमिशन दिखाने पड़ रहे हैं।
जिन बच्चों के एडमिशन इन विद्यालयों में दिखाए जा रहे हैं, उनमें से ज्यादातर निजी विद्यालयों में पढ़ते हैं। उत्तर प्रदेश के सिर्फ प्राथमिक विद्यालयों में दो लाख सत्तर हजार शिक्षकों की कमी है। यही हाल अन्य प्रदेशों का भी है। हर विद्यालय में चार से पांच शिक्षक होने चाहिए, लेकिन कहीं तीन शिक्षक हैं, कहीं दो और कहीं-कहीं तो बस एक।
जरा गौर फरमाएं कि सरकारी विद्यालयों में बच्चों को मुफ्त किताबें मिलती हैं, मुफ्त ड्रेस मिलती है, मिड-डे-मील मिलता है,वजीफा मिलता है। यह सब इस लिए मिलता है कि ज्यादा से ज्यादा बच्चों को सरकारी स्कूलों की तरफ आकर्षित किया जा सके। शिक्षक इन स्कूलों में वैसे भी कम आते हैं और जो आते भी हैं वे इस गुणा-भाग में लगे रहते हैं कि आज मिड-डे-मील में क्या बनवाना है, कितने बच्चों का भोजन करना दिखाना है और मिड-डे-मील में जो ज्यादा बच्चे दिखाए गए हैं उनके हिस्से का बंटवारा कैसे करना है। यह विडंबना ही है कि ज्यादा बच्चों को स्कूल तक लाने के लिए जो उपाय किया गया, वह इन स्कूलों के विनाश का एक और कारण बना।
क्या इस बात का कोई जवाब है कि इतना लालच देने के बाद भी बच्चे सरकारी स्कूलों में क्यों नहीं आते और पैसा खर्च कर वही बच्चे निजी विद्यालयों में क्यों जाते हैं? सरकार ने मान लिया है लालच देकर बच्चों को सरकारी स्कूलों तक लाया जा सकता है। नेता व अधिकारी यह भूल रहे हैं कि अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा कर काबिल बनाने की तमन्ना केवल उन्हीं की नहीं है। यह चाहत तो गरीब से गरीब व्यक्ति की भी है।
सरकार को इस बात की पड़ताल करनी चाहिए कि लालच देकर बच्चों को स्कूल लाने के लिए जो अरबों रुपये खर्च हो रहे हैं, उसी से शिक्षा व्यवस्था को मजबूत क्यों नहीं किया जाता। यह तो साफ हो गया है कि मिड-डे-मील भ्रष्टाचार का अड्डा हैं। कॉपी, किताबें व ड्रेस खरीदने के नाम पर भी बड़ों की जेबें भर रही हैं। गरीब बच्चों को स्कूल लाने में जो अरबों रुपये खर्च हो रहे हैं, उसी से शिक्षा व्यवस्था को मजबूत क्यों नहीं किया जाता?
हाईकोर्ट का निर्णय पूरी शिक्षा व्यवस्था के लिए मील का पत्थर साबित हो सकता है। हम आधुनिक समाज में रहते हैं जहां सामाजिक विषमता के खिलाफ लड़ाई के दावे किए जाते हैं। आर्थिक विषमता को खत्म करने के नारे लग रहे हैं, भेदभाव के खिलाफ जुबानी लड़ाइयां लड़ी जा रही हैं। फिर क्या इस बात पर किसी को शर्म नहीं आती कि आज से पांच हजार साल पहले श्रीकृष्ण और अति गरीब घर के सुदामा एक साथ पढ़े थे, लेकिन आज हम पैसे के बल पर शिक्षा की ऊंची से ऊंची दुकानें तलाश रहे हैं। क्या आज कृष्ण सुदामा साथ नहीं पढ़ सकते/ सरकारी तंत्र यह होने नहीं देगा। कृष्ण और सुदामा को साथ पढ़ाना एवरेस्ट की चढ़ाई चढ़ने जैसा कठिन है।
- अपील न करें
जिन सरकारी विद्यालयों को सरकारी तंत्र ने ही बर्बाद किया है, उसके अलमबरदार अपने बच्चों को इन विद्यालयों में क्यों भेजने लगे/ यदि सरकार चाहती है कि सर्व शिक्षा अभियान वास्तव में सफल हो, गरीबों को समुचित शिक्षा मिले तो उत्तर प्रदेश सरकार को हाईकोर्ट के इस निर्णय के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील नहीं करनी चाहिए।
इन बड़े-बड़े अधिकारियों, सांसदों और विधायकों को यह एहसास कराना जरूरी है कि सरकारी प्राइमरी विद्यालयों में शिक्षा मिलती भी है या नहीं, शिक्षक आते हैं या नहीं आते, स्कूल खुलता है या नहीं खुलता। अभी तो इन विद्यालयों में शिक्षा के अलावा अन्य सारे काम हो रहे हैं। मिड-डे-मील के नाम पर घटतौली हो रही है और उसे ही शिक्षा मान लिया गया है। अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने वाले अधिकारियों-नेताओं ने मान लिया है कि गरीब अपने बच्चों को लालच में सरकारी स्कूलों में भेजता है। उसे बेहतर शिक्षा से कोई मतलब नहीं। क्या बेहतर शिक्षा दिलाने का अधिकार गरीबों के लिए नहीं है।
खबर साभार : नवभारत टाइम्स
अमीरों को शिक्षा, गरीबों को सिर्फ भिक्षा : मिड-डे-मील और मुफ्त ड्रेस के लालच पर नहीं चल सकते सरकारी स्कूल
Reviewed by प्रवीण त्रिवेदी
on
10:30 AM
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