सरकारी स्कूलों की सुध : आस-पास अव्यवस्था और बदहाली होगी, तो उसके बीच शासक वर्ग की अपनी सुविधाओं के द्वीप भी कब तक सुरक्षित रहेंगे? हिंदुस्तान संपादकीय



सरकारी स्कूलों की सुध 

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सरकारी स्कूलों की बदहाली के सिलसिले में जो फैसला दिया है, उस पर अगर वास्तव में अमल होता है, तो उत्तर प्रदेश में शिक्षा की सूरत बदल जाएगी और यह राज्य पूरे देश के लिए मिसाल बन जाएगा। हाईकोर्ट का कहना है कि सरकारी कर्मचारी, जन-प्रतिनिधि और न्यायपालिका के सदस्य अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाएं। 


अदालत का कहना है कि अगर सरकार से तनख्वाह लेने वाले सभी लोगों के बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ने लगेंगे, तो सरकारी स्कूलों की स्थिति सुधर जाएगी। अदालत ने उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव को आदेश दिया है कि वह छह महीने में अदालत के फैसले पर अमल सुनिश्चित करें। यह फैसला अदालत ने उन याचिकाओं की सुनवाई पर दिया, जिनमें उत्तर प्रदेश सरकार के स्कूल शिक्षकों की भर्ती के नियमों को चुनौती दी गई थी।


कई शिक्षाविद लंबे समय से यह वकालत करते रहे हैं कि देश में एक जैसी शिक्षा व्यवस्था होनी चाहिए और यह तभी संभव है, जब लगभग सारे ही स्कूल सरकारी होंगे। पिछले वर्षो में शिक्षा की जैसी उपेक्षा हुई है, उससे प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्चतम शिक्षा तक में निजीकरण का बोलबाला हो गया है। सभी निजी स्कूल भी एक जैसे नहीं हैं, और उनमें भी तरह-तरह का वर्गभेद है। एक बड़ा फर्क पिछले बरसों में यह आया है कि जिसकी भी थोड़ी हैसियत है, उसने अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढ़ाना शुरू कर दिया है। इससे सरकारी स्कूलों का विस्तार नहीं हुआ और उनकी गुणवत्ता भी खराब होती चली गई। 


सरकारें स्कूलों में शिक्षकों की भर्ती शिक्षा को बेहतर बनाने के नजरिये से नहीं, बल्कि वोट बैंक, भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के नजरिये से करने लगीं। शिक्षकों को भी यह एहसास हो गया कि नौकरी उन्हें उपकृत करने के लिए दी गई है, पढ़ाने के लिए नहीं। एक अध्ययन से पता चला है कि भारत में सरकारी स्कूलों के करीब 20 फीसदी शिक्षकों के पास जरूरी योग्यता ही नहीं है और उनकी तादाद हर साल बढ़ रही है। जिनके पास कागजों पर योग्यता है, उनमें से भी कितनों के पास सचमुच जरूरी ज्ञान और कौशल है, यह भी एक सवाल है। 


इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस फैसले में उत्तर प्रदेश में भी शिक्षकों की भर्ती की प्रक्रिया को गलत बताया है। जाहिर है, शिक्षकों की भर्ती करने वाले लोगों के अपने बच्चे अगर सरकारी स्कूलों में पढ़ेंगे, तो वे लोग इतनी लापरवाही नहीं बरतेंगे और शिक्षा के साथ ऐसा खिलवाड़ नहीं करेंगे।यह स्थिति सिर्फ शिक्षा की नहीं है, तमाम सार्वजनिक सेवाओं का यही हाल है। भारत में आजादी के बाद कुछ वक्त तक सार्वजनिक सेवाओं को बेहतर करने की कोशिश की गई और उसके अच्छे नतीजे भी सामने आए, लेकिन एक वक्त के बाद भारत के शासक वर्ग ने इन सेवाओं को भ्रष्टाचार व पक्षपात का जरिया बना लिया और अपने लिए बेहतर सेवाएं निजी क्षेत्र में पा लीं। जो साधनहीन और गरीब लोग थे, वही बदतर होती सार्वजनिक सेवाओं का इस्तेमाल करने पर मजबूर थे। 

सरकारी स्कूल, अस्पताल, भारतीय रेलवे, सड़कें, पेयजल, पुलिस सारी व्यवस्थाओं में लगातार पतन देखा जा सकता है। लेकिन शासक वर्ग को भी यह सोचना होगा कि अगर आस-पास अव्यवस्था और बदहाली होगी, तो उसके बीच उनके अपने सुविधाओं के द्वीप भी कब तक सुरक्षित रहेंगे? एक हद तक निजीकरण जरूरी है, लेकिन कुछ सेवाएं सार्वजनिक क्षेत्र में ही होनी चाहिए और उन्हें बेहतर बनाने का एक तरीका वह है, जो अदालत ने दिखाया है। बड़े लोग सरकारी स्कूल, अस्पताल और सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल करने पर मजबूर कर दिए गए, तो इनकी स्थिति सुधरने की उम्मीद बढ़ जाएगी।


खबर साभार :   हिन्दुस्तान 

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सरकारी स्कूलों की सुध : आस-पास अव्यवस्था और बदहाली होगी, तो उसके बीच शासक वर्ग की अपनी सुविधाओं के द्वीप भी कब तक सुरक्षित रहेंगे? हिंदुस्तान संपादकीय Reviewed by प्रवीण त्रिवेदी on 10:37 AM Rating: 5

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